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इन नियमों का मैं पालन करूँगा । तब गुरु ने नियम प्रतिज्ञा देने के बाद कहा " इन नियमों का सम्यक् रूप से पालन करना । प्रमादी मत बनना । ये नियम निष्पाप जीवन का मूल हैं । इनका सम्यक् पालन मोक्ष का कारण है । फिर कुमार ने पूछा "भगवंत ! इस भव में मुझे दीक्षा मिलेगी या नहीं ? गुरुने कहा " भोग कर्म फल को भोगकर, चारित्र लेकर, इसी भव में शिवगामी होगा ।"
चक्रायुध ने कहा "गुरुदेव ! संसार की असारता पूर्व में कुछ समझी थी। अब तो इसे छोड़कर दीक्षा लेना चाहता हूँ । अतः राज्य की व्यवस्थाकर आऊँ तब तक आप स्थिरता करावें ।"
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चक्रायुध ने राजमहल में जाकर, मंत्रीयों से मंत्रणाकर, जयानंद को प्रणामकर कहा "मुझ पर जय प्राप्तकर वैताढ्यपर्वत के राज्य का स्वामी बना, उसके समर्थन के रूप में राज्याभिषेक की अनुमति दो । | जयानंद राजा ने कहा "मुझे वैताढ्य राज्य का कोई प्रयोजन नहीं, मैं मेरे राज्य से संतुष्ट हूँ । तू तेरे पुत्र को राज्य दे, मैं दूर रहकर भी तेरे समान उसकी सुरक्षा रखूंगा । तब चक्री ने कहा- मैंने मेरे पुत्र तेरे उत्संग में रखे हैं । तुझे उचित लगे वैसा करना । हमने ज्ञानी मुख से तुझे वैताढ्य सहित भरतार्ध का नायक सुना हैं । अत: इसे सत्य करने के लिए तेरा राज्याभिषेककर मैं चारित्र लेना चाहता हूँ । इसमें विघ्न मतकर ।" जयानंद मौन रहा । फिर सबने मिलकर जयानंद का राज्याभिषेक किया । जयानंद ने चक्रवेग, पवनवेग आदि को यथायोग्य राज्य देकर उनका सत्कार किया । जिन चैत्यों में आठ दिवस का महोत्सव करवाकर श्री चक्रायुध राजा का दीक्षा महोत्सव उसके पुत्र चक्रवेग और जयानंद राजा ने मिलकर किया । चक्रायुध | राजा ने महोत्सव पूर्वक दीक्षा ग्रहण की । जयानंद आदि राजा एवं चक्रवेग पवनवेग आदि राजा विधिवत् वंदनकर, अपने - अपने स्थान पर गये। मुनियों ने भी विहार किया ।
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