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इधर् जयानंद राजा वैताढ्यपर्वत की दोनों श्रणियों के जो राजा सेवा में नहीं आये थे, उनको जीतकर दोनों श्रेणियों का चक्री राजा होकर सुखोपभोग करता हुआ रहा था । एकदिन रात को गिरिचूड़ देव ने आकर उसे कहा "हेमजट तापस ने समाचार भेजे है कि आप पधारकर तापससुंदरी को अपने साथ ले जाकर हमें प्रव्रज्या लेने में सहायक बनो ।" राजा भी उसको मिलने, पितादि को मिलने के लिए उत्सुक हुआ । प्रातः मुख्य खेचर राजाओं को बुलाकर, चक्रायुध के मुख्य पुत्र चक्रवेग को राज्य पर स्थापन कर, उसे उत्तर श्रेणि का आधिपत्य और पवनवेग को दक्षिण श्रेणि का आधिपत्य देकर राज्य की व्यवस्थाकर, खेचरों के साथ, पवनवेगादि राजाओं के साथ, अपने विशाल अंतपुर परिवार के साथ, तापसाश्रम में आया । वहाँ तापससुंदरी को मिला । हेमप्रभगुरु हेमजटादि तापसों का दीक्षा अवसर ज्ञान से जानकर वहाँ पधारे । गिरिचूड़ देव ने तापसों का दीक्षोत्सव किया । राजा सपरिवार सभी मुनियों को नमस्कारकर लक्ष्मीपुर की ओर चला । श्री विजयराजा पर-चक्र आया जानकर, युद्ध की तैयारी करने लगा। तभी जयानंद के आदमी ने आकर समाचार दिये कि 44 आपका पुत्र जयानंद सपरिवार आपकी सेवा में आ रहा है। मैं बधाई के लिए आया हूँ ।" राजा ने उसे खुश होकर, पारितोषिक दिया । फिर राजा मंत्री और प्रजा सब सामने गये । पिता को देखते ही विमान से उतरकर कुमार सामने गया । चरणों में प्रणाम किया । पिता पुत्र दोनों हाथी पर बैठकर नगरजनों का स्वागत सत्कार ग्रहण करते हुए राजमहल में आये । पिता पुत्र दोनों सिंहासन पर बैठे इंद्रसमान शोभा दे रहे थे । राजसभा में स्वागत का कार्य पूर्णकर, अंतपुर में आकर माता के चरणों में प्रणाम किया। सभी बहुओं ने सासू के चरणों में प्रणाम किया । माता ने पुत्र एवं पुत्र वधुओं
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