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तो श्रावक धर्म अंगीकार करना चाहिए। गृहस्थों का धर्म अर्थात् सम्यक्त्व मूल द्वादशव्रत। जिस में पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत चार शिक्षाव्रत हैं। सम्यक्त्व सुदेव में देव बुद्धि, सुगुरु में गुरु बुद्धि
और सुधर्म में धर्मबुद्धि का होना। इससे विपरीत मिथ्यात्व। फिर गुरु भगवंत ने द्वादशव्रत का स्वरूप समझाया । फिर राज्य की असारता का निरूपण किया । "परलोक में नरकादि दुःख की प्राप्ति हो, ऐसे राज्य में कौन बुद्धिवान रमण करे? जिससे कषायों की उदीरणा हो, पूर्व पुण्य को खा जाय, विषय विवेक का नाश करता हो वह राज्य नरकप्रद ही है, मूढचित्तवाले राज्य प्राप्ति से मद ग्रस्त होकर परभव के नरकादि दुःख को नहीं जानते।" इस प्रकार धर्म देशना सुनकर जयानंद राजा ने भगवंत से कहा "मैं महाव्रत का स्वीकार करने में तो असमर्थ हूँ। मैंने पूर्व में अणुव्रत चतुष्क सम्यक्त्वसहित लिए हुए है। अब मैं राज्यभोग के योग्य निम्न नियम ग्रहण करता हूँ ।" (१) प्रतिदिन अष्टप्रकारी पूजा के पश्चात् भोजन करूँगा । (२) योग होगा, वहाँ तक गुरु को नमस्कारकर, साधर्मिक का
सत्कारकर, भोजन करूँगा ।। (३) महापर्व के दिनों में आरंभ का त्यागकर, ब्रह्मचर्य का पालन
करूँगा । | (४) चैत्र महिने में अष्टाह्निका महोत्सव व अमारी पटह बजवाऊँगा। | (५) हजारों की संख्या में जिनबिंब, जिनमंदिर करवाऊँगा । | (६) जिनागम लिखवाऊँगा । । (७) योग होगा, तब चतुर्विध संघ की पूजा करूँगा । (८) श्रावकों के पास से कर वसूल नहीं करूँगा । (९) अनुकंपादान आदि धर्म कार्य करूँगा । (१०) अरिहंत शासन की प्रभावना हो, वैसे कार्य करूँगा ।
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