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और जैनधर्मी भी बनाऊँगा । सज्जनों के लिए उपकार करना ही परम कृत्य है। धर्मदान से अधिक परमोपकार अन्य नहीं है । हे प्रिये ! " इस विघ्न निवारण औषधि को अपने पास रख, निर्भय होकर क्षण भर यहाँ ठहर । मैं छुपाया हुआ पल्यंक, आभरण, वस्त्रादि लेकर आता हूँ। ।" उसके 'हाँ' कहने पर उसे वह औषधि देकर कुमार गया । पल्यंकादि सामग्री ले आया । स्वाभाविक रूप से नगर में जाकर एक श्रेष्ठि की दुकान खुलवाकर, दुगुना मूल्य देकर, नये वस्त्र अलंकार आदि मांगे। उसने भी अपनी पुत्रवधू के लिए बनाये नये अलंकारादि उसे दुगुने मूल्य लेकर दे दिये । वह सब लेकर कुमार देव मंदिर में आया । फिर प्रिया को वस्त्रालंकारादि पहनने को दिये । उसने हर्ष से पहने। शेष रात पल्यंक पर व्यतीत की । ब्राह्म मुहूर्त में उठकर पत्नि ने पूछा अब कहाँ जायेंगे ?" उसने कहा " जहाँ तेरी इच्छा हो । तू कहे तो रत्नपुर में मेरी पत्नी रतिसुंदरी है, उसके पास जायँ ।" उसने कहा "प्रिय ! परोपकार प्रवीण आप से मैं एक विनति करना चाहती हूँ । सुनो । कमलपुर में कमलप्रभ राजा है । वह मेरे मामा हैं । उसकी प्रीतिमति और भोगवती दो पत्नियाँ हैं । प्रथमा का पुत्र जयसूर रोगी, क्रूर, दुर्भागी और दुर्विनीत है। द्वितीया का पुत्र विजयसूर गुणी रूपवान् विनयवान, दाता और शूर है। द्वितीया की एक गुण, रूप शीलयुक्त कमलसुंदरी पुत्री है। राजा ने एकबार नैमित्तिक से पूछा राज्य योग्य कौनसा पुत्र है ।" उसने विजयसूर का नाम बताया । राजा हर्षित हुआ । यह बात प्रीतिमति ने सुनी । अपने पुत्र को राज्य न मिले तो उसे भी न मिले ऐसे अनेक कुविकल्पकर, उसने एक कापालिनी के पास हाथ पैर स्तंभित करे, ऐसा चूर्ण, प्राप्त किया । भोगवती को विश्वास में लेकर उसे अपने घर पुत्र-पुत्री सहित भोजन के लिए निमंत्रित किया । विजयसूर को वह चूर्ण जयसुंदरी ने भोजन में दे दिया । उस चूर्ण के प्रभाव से धीरे-धीरे उसके हाथ पैर स्तंभित हो गये। अब वह हाथ पैर से कुछ
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