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________________ यह क्या नाटक है, जो आप मुझे अनेक रूप कर के मोहित कर रहे है?'' कुमार ने कहा "हे प्रिये ! मैं क्षत्रिय पुत्र हूँ । कला-विज्ञान विद्याएँ ग्रहण हेतु एवं कौतुक से विविध देशों में भ्रमण करते हुए कहीं कला समूह का अध्ययन किया और पृथ्वी पर घूमते हुए अनेक औषधियाँ भी प्राप्त की । आराधित देव-प्रदत्त आकाशगामिनी पल्यंक से पर्वत पुर आदि में घूमते हुए रत्नपुर में आया । वहाँ रतिसुंदरी से विवाह किया । वहाँ रहते हुए मैंने रात को एक स्वप्न देखा। उसको विफल करने और भाग्य की परीक्षा करने के लिए ऐसा रूप बनाकर यहाँ आया ।" सारा विवरण सुनकर अत्यंत आनंदित वह बोली "ज्ञानी के वचन सत्य सिद्ध हुए। एकबार मैं ज्ञान निधि गुरु की देशना सुनने माता के साथ गयी थी । देशनान्ते मेरी माता ने पूछा था "हे भगवन् ! किस कर्म के उदय से मुझे नास्तिक पति मिला। मैं और मेरी पुत्री जैन धर्म का पालन करते हैं। इस पुत्री पर इसके पिता का स्नेह कम है, तो इसका पति कौन होगा?'' मुनि ने कहा "तेरी पुत्री धर्मशील है। सद्लक्षणवाली है। इसका पति अर्धभरत का स्वामी होगा । यह महारानी होगी। माता ने पूछा "वह कैसे मिलेगा?'' मुनि ने कहा "इस उद्यान में ऋषभ प्रभु का चैत्य है वहाँ चक्रेश्वरी देवी की प्रतिमा है। तू उसकी अर्चना कर । उससे संतुष्ट देवी इसके लिए उचित वर चुनेगी ।" ऐसे वचन सुनकर हर्षित माता मुनि भगवंत को नमस्कारकर घर आयी । उसदिन से मेरी माता ने देवी की उपासना की । मैं ऐसा मानती हूँ, कि मैरे भाग्य से प्रेरित देवी ने ही आपको स्वप्न दिखाया हैं। और आप यहाँ पधारें। फिर कुमार बोला "जैनधर्म के प्रभाव से अपना कार्य सफल हुआ । वैसे आगे भी सफल होगा। अब किसीको बिना सूचना दिये हम चले जायँ, क्योंकि तेरे पिता को सजा दिये बिना मेरा परिचय नहीं देना है। अपराध के बिना सजा भी उचित नहीं। अब स्पष्ट कोई अपराध भी नहीं दिखता । अतः अवसर पाकर अधिक सजा दूंगा,
SR No.022703
Book TitleJayanand Kevali Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year2002
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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