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है। बिना स्वामी की अनुमति से लेना अदत्त है और अदत्त दुःख का | कारण है। मैं द्वय लोक विरुद्ध यह कार्य कैसे करूँगा? अदत्त ग्राही के गुण, सुख, यश, लक्ष्मी, धर्म आदि कुछ नहीं होता। केवल दुर्गति होती है। यह जल तेरा नहीं है। अतः मैं प्राण जाने पर भी इस जल का उपयोग नहीं करूँगा । जल पान नहीं करने से एकबार मत्य होगी और व्रतभंग करने से अनेक भवों में मरण प्राप्त होगा।" इस प्रकार सुत्रामा के वचन सुनकर वह पक्षी उड़ गया। थोड़ी देर में एक पुरुष, प्रकट हुआ । उसने सार्थवाह को नमस्कारकर कहा "तू व्रत में दृढ़, सात्त्विक महापुरुष है, तुझे धन्य है।" सार्थवाह ने कहा "अन्य के गण देखकर प्रमुदित होने वाले तुम भी गुणवान हो, आप कौन हो? किसलिए और कहाँ से यहाँ आये हो?"
उसने कहा 'सुनो ।" इसी भरत के वैताढ्यपर्वत पर दक्षिण श्रेणि में विपुल पुरी नगरी है । उस नगरी में विशदाह्व, नामक विद्याधर
और उसकी मणिमाला नामक प्रिया है उनका मैं सूर्य नामक पुत्र हूँ। उचित आयु में सभी कलाओं का और शास्त्रों का ज्ञाता हुआ । पिता प्रदत्त प्रज्ञप्ति प्रमुख विद्याओं को सिद्ध कर ली । उन विद्याओं के बल से मैं शैल वनादि में स्वेच्छा से विचरण करता विलास करने लगा। इधर मेरे पिता ने विमलाचार्य के पास धर्मोपदेश श्रवणकर चारित्र ले लिया । ग्रहण-आसेवन शिक्षा, तपश्चर्या, निरतिचार चारित्र पालन द्वारा गुरु की आराधना की । अनेक लब्धियों के स्वामी हुए । गुरु भगवंत ने उन्हें आचार्य पद दिया । चार ज्ञान के धारक हुए । पृथ्वी तल पर भव्यात्माओं को प्रतिबोध देते हुए विहार करने लगे । मैं घर में रहते हुआ पिता प्रदत्त राज्य का पालन करता हुआ किसी कुमित्र के संसर्ग से, चौर्यकर्म करने लगा । विद्या के बल से अनेक राजाओं के राजभंडार में से धन की चोरी करने लगा । क्रूरता भी आयी और अनेक दोष मुझ में निवास करने लगे । इस अवसर पर मेरे पिता विशदसूरि अनेक