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भूमि पर किसी के गले में से तूटकर पड़ा हो, वैसा देखा । सुत्रामा उस पर से नजर हटाकर आगे बढ़ा। कोस भर और आगे गया तो वहाँ स्वर्ण महोरों से भरा हुआ, एक कलश भूमि में गड़ा हुआ, ऊपर से खुला दिखायी दिया । वह फिर भी नजरे हटाकर आगे बढ़ा और सोचा 'क्या बात हैं ? आज ये चीजें किसकी गिरी हैं ? यह कलश कैसे उपर तक आ गया है ?' पुनः सोचा 'मुझे उससे क्या ?' आगे बढ़ा। अश्व को थका देखकर नीचे उतरा तभी अश्व मूर्च्छित होकर गिरा और गिरते ही निश्चेष्ट हो गया । उसने सोचा यह अश्व मूर्च्छित हुआ या प्राण रहित हुआ। या किसी क्षुद्र देव ने अचेतन किया है ? ' इत्यादि क्षण भर विचारकर बोला "रे देव! मार्ग में उत्तम सहायक, स्वामीभक्त, चित्तप्रियकर, लक्षणवंत, तेजस्वी, जातिवान् सर्वगुण संपन्न इस अश्व को अकाल में संहरणकर तूने क्या किया ? फिर भी तूने जो किया, वह किया, मैं तो मेरे व्रतों को अक्षुण्ण रखूंगा । पुनः सोचा 'अश्व के बिना मार्गोल्लंघन विकट है। अतः कोई अश्व को जागृत कर दे, उसे प्रचुर धन दूंगा । ऐसा सोचकर इधर-उधर किसी वैद्य को खोजने लगा। पर उस घने जंगल में कौन मिले ? फिर भी खोजने लगा । घूमने के कारण उसे प्यास लगी। वह पानी खोजने लगा । एकवृक्ष पर दृती ( चमडे की थेली) जल से भरी हुई देखी । यह किसकी है? स्वामी कहाँ गया ? वह दिखे, तो उससे याचना करूँ । ऐसा सोचकर इधर-उधर देख रहा था । तभी एक पक्षी ने आकर कहा (मानव भाषा में ) " ए भाई ! ऐसा लगता है कि तू प्यासा है। ऊपर यह दृति तुझे दीख रही | है | तू मेरा अतिथि है, ऐसा पुण्यवान् अतिथि कभी-कभी ही मिलता है । अत: तू मेरी आज्ञा से यह जल ग्रहणकर, तृषा को शांतकर । तृषित व्यक्ति से धर्म-कर्म कुछ भी नहीं होता । सुत्रामा ने कहा शुक ! तू धर्मतत्त्व को नहीं जानता । तू इस जल का अधिपति नहीं
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