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साधुओं के साथ विपुलपुरी में आये । उद्यान पालक द्वारा प्राप्त समाचारों से मैं और अनेक लोग दर्शन-वंदन के लिए आये । त्रिप्रदक्षिणा देकर |देशना श्रवणार्थ बैठे। देशना सुनी। बहुत सारे लोगों ने सम्यक्त्वादि व्रत नियम ग्रहण किये। सब के जाने के बाद उन्होंने मुझे धर्मोपदेश दिया । मैंने उनके पास अचौर्यव्रत को ग्रहण किया । व्रतपालन में दृढ़ता हेतु उन्होंने तेरा उदाहरण दिया । मैं सोचने लगा कि ऐसी उसकी कैसी
ढ़ता है। जिसकी ये साधु भी प्रशंसा करते हैं । इसी परीक्षा हेतु मैंने तुम्हारे मार्ग में मणि कुंडल, माला, कलश रखा। उससे पराङ्मुख देखकर, तुझे दुःखी करने के लिए मैंने तेरे अश्व को मृत बताया । जल पूर्ण दृति बतायी । पर तू दृढ़ रहा । गुरु ने जैसा कहा उससे तू अधिक दिखायी दिया। मैंने तुझे जो कष्ट दिया, इसके लिए क्षमायाचना करता हूँ। तेरी दृढ़ता से मैं अत्यंत प्रसन्न हूँ । तुम मुझ से कुछ लेकर मुझ पर कृपा करो। ऐसा कहकर पढ़ते ही सिद्ध हो जाय वैसी आकाशगामिनी विद्या एवं अन्य अनेक विद्याएँ - मंत्र - औषधि आदि देकर भक्तिपूर्वक बहुत धन देने लगा । तब सुत्रामा ने पूछा " यह धन किसका है ?" उसने कहा " पूर्व में तो मेरा और अन्यका था, अब तो मेरा ही है।" सुत्रामा ने कहा " हे खेचर! इस प्रकार एक ओर तो तू धर्मतत्त्व की बात करता है, और दूसरी ओर विपरीत बोलता है । चोरी से आये हुए धन से तेरा धन भी अशुद्ध हो गया, जैसे मद्य बिन्दु से सारा दूध । अगर चोरी से निवृत्त हुआ है, पिता से प्रतिबोधित हुआ है, धर्म प्राप्त किया है, स्वच्छधर्म में स्थित होने की इच्छा है, सद्गति में जाने के परिणाम है, तो यह सारा धन जिन-जिनका हो उनको लौटा दे। फिर पीछे रहा हुआ तेरा धन शुद्ध होगा । तेरी ख्याति भी बढ़ेगी । " इस प्रकार सार्थवाह की बात सुनकर परम प्रीति से देव ने उसके वचनानुसार कार्य किया । सार्थवाह की साक्षी से धर्म क्षेत्र में धन व्यय किया । दोनों स्वस्थान पर गये । सार्थवाह सुत्रामा आकाशगामिनी विद्या के
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