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कुवलयमाला-कथा
[87] (व्रतदृष्टान्त) जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में पृथ्वी का अलङ्कार स्वरूप मगध नाम का देश है। उसमें एक राजगृह नगर है। वह प्रसिद्धि रूपी लक्ष्मी का अनन्य आश्रय है- सब से अधिक विख्यात है, और चलते-फिरते पर्वतों से सुन्दर जान पड़ता है। वहाँ के राजा का नाम परन्तप है। उसकी कीर्ति चौ-तरफ फैली हई है। वह राजा अपने निरन्तर (सर्वत्र व्याप्त) प्रताप से सूर्य के समान है, लक्ष्मी से कुबेर के समान है और बुद्धि में बृहस्पति के समान है। वह श्री वीतराग भगवान के चरणकमलों में भ्रमर के समान, सम्यक्त्व का धारी और वैरी रूपी वृक्षों को अपने प्रताप के द्वारा सोखने वाला है। नमन करते समय वश में किये हुए अनेक राजाओं के मुकुटों में शोभायमान मणियों की किरणों से उसका सिंहासन अर्चित होता था। जैसे सिंह अपने तीखे नाखूनों से लाखों हाथियों का विदारण करता है, उसी प्रकार उस राजा(परन्तप) ने अपने तीखे तीरों से लाखों शत्रुओं का विदारण किया था। उसके अनेक स्त्रियाँ थीं। उनमें से गुणश्री से श्रेष्ठ और चन्द्रमा के समान मनोहर मुख वाली शशिकान्ता नाम की पटरानी थी।
उस राजगृह नगर में महाचतुर, निर्मल बुद्धि वाला, समस्त श्रेष्ठियों में उत्तम और अपने सद्गुणों के द्वारा पुण्य पुञ्ज का पात्र स्वरूप धन नाम का सेठ रहता था। उसकी धारिणी नाम की प्रिया थी। वह रूप लावण्य में रम्भा अप्सरा जैसी सुन्दर थी। वह मानो सदाचार की स्वामिनी हो, इस प्रकार लोगों को आनन्द देने वाली थी। उस सेठ के चार पुत्र थे-धनपाल, धनदेव, धनगोप
और धनरक्षित। चारों पुत्रों को सेठ ने उपाध्याय के पास पढ़ने भेजा। वे कुछ ही दिनों में सब विद्याओं में प्रवीण हो गये। धीरे-धीरे चारों पुत्र कामदेव के उद्यान के समान शृङ्गार रूपी वृक्ष के जीवन के समान और संसार के नेत्रों को आनन्ददायक युवावस्था में आये। युवावस्था आने पर उसी राजगृह नगर के समान सम्पत्तिशाली सेठों की सुन्दरी कन्याओं के साथ उनके विवाह धन सेठ ने कर दिये। पहले पुत्र की स्त्री का नाम उज्झिका था। दूसरे की स्त्री का भक्षिका, तीसरे की स्त्री का रक्षिका और चौथे की स्त्री का नाम रोहिणी था। देवों की तरह उन स्त्रियों के साथ विषय सुख भोगते-भोगते बहुत समय बीत गया पर उन्हें इसका पता ही न लगा। एक बार धन सेठ रात के पिछले पहर
व्रतदृष्टान्त
तृतीय प्रस्ताव