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कुवलयमाला-कथा जहाज ठिकाने पर आ गया। वह अपने पुत्र मित्र, कलत्र(स्त्री), धन, धान्यादि के साथ चैन से रहने लगा।
साधुओं! इस दृष्टान्त का उपनय सुनो- अभी जो महान् दुस्तर समुद्र कहा उसे महा घोर संसार समझो। कुडङ्ग द्वीप को मनुष्य भव समझो। उस द्वीप में जो कुडङ्ग बताये गये हैं, उन्हें घर समझो। उनमें रहने वाले तीन पुरुषों के स्थान पर संसार में रहने वाले तीन प्रकार के मनुष्य समझो। गूलर के वृक्षों को दीर्घ नेत्र वाली स्त्री समझो। उन वृक्षों में जो फल कहे गये हैं, उन्हें बालबच्चे समझो। वृथा आशा-पाश में फंसे हुए मूर्ख जीव दरिद्रता दुःख और रोग के समूह रूप कौओं से निरन्तर वृक्ष रूप स्त्रियों का रक्षण सेवन करते हैं। गृहस्थी के अनेक उलझनों में जिसका मन सदा उलझा रहता है, वह मूर्ख जीव परलोक में जो आत्मा का हित करने वाला है, उसे भूल जाता है। इस दृष्टान्त में जो जहाज का व्यापारी बताया गया है, उसे गुरु समझना। उसने जो दो भेजे, उन्हें साधु और श्रावक के धर्म समझना। संसार के दुःख सन्ताप से सन्तप्त जीवों को जो पार लगा देता है, वही महासत्त्ववान् और समस्त तत्त्वों का ज्ञाता आप्त पुरुष है। यह मनुष्य जन्म निन्दनीय और अनेक प्रकार शोच करने योग्य है। इसलिए इसे (गिरस्ती को) त्याग कर मोक्ष का सेवन कर" मुनीश्वर समस्त जीवों को इस प्रकार उपदेश देते हैं। उपदेश सुनने वाले तीन प्रकार के जीवों में पहला अभव्य जीव है। वह कहता है"इस मनुष्य भव में क्या दुःख है? मोक्ष में क्या अधिक पड़ा है? भई ! मुझे तो मोक्ष में नहीं जाना।" दूसरा पुरुष दूर भव्य है। वह कहता है- “हे मुनिराज! मैं पुत्र, मित्र कलत्र की ममता का त्याग करने में समर्थ नहीं हूँ।" तीसरा प्राणी भव्य है। वह सद्धर्म देशना सुन कर बोलता है-"दुःख पीड़ा से महाभयङ्कर इस मनुष्य लोक में कौन रहे? सात अङ्गों से शोभित राज्य और सुन्दर सन्तान तो प्रत्येक भव में मिलती है, परन्तु जिनेश्वर की दीक्षा कब मिलती है? नाना प्रकार के दुःख देने वाले इस मनुष्य लोक को मैं हाथ जोड़ता हूँ। मैं तो मोक्ष लक्ष्मी के लिए ही उद्यम करूँगा।"
इस प्रकार एक कथा कहकर श्री धर्मनन्दन आचार्य फिर बोले-"हे वत्सों! अब व्रत सम्बन्धी दृष्टान्त कहता हूँ। सुनो
तृतीय प्रस्ताव