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कुवलयमाला-कथा जानकर, उन्हीं साधुओं को उद्देश करके कहा-'इस लोक में राज्य और स्त्री आदि का सुख अनित्य और तुच्छ है, तथा मोक्ष से होने वाला सुख अनन्त, अक्षय और अव्याहत है। इस विषय में एक उदाहरण देता हूँ। सुनो
सब नगरों में श्रेष्ठ पाटलीपुत्र नाम का नगर है। उसमें एक धनकुबेर 'धन' नाम का श्रेष्ठी रहता है। एक बार वह जहाज में बैठकर रत्नद्वीप की ओर रवाना हुआ। वह समुद्र में जा रहा था कि इतने में प्रचण्ड वायु चलने लगा। समुद्र की कल्लोलों आकाश तक उछलती हुई समुद्र की तरङ्गों से इधर उधर भटकता हुआ जहाज अन्त में टूट गया। उस समय जैसे भूखे को आहार मिल जाय, ठण्ड से सिकुड़े हुए को अग्नि मिल जाय, प्यासे को पानी मिल जाए उसी प्रकार धन श्रेष्ठी को एक पटिया मिल गया। उसीके सहारे धन सात दिनों में कडुवे फल वाले सैंकड़ों वृक्षों से व्याप्त कुडङ्ग नामक द्वीप में पहुँचा। वह द्वीप संसार की तरह अपार और विष के समान विषम था। धन इधर उधर घूम रहा था कि उसे दूसरा मनुष्य दिखाई दिया। जैसे भव्य प्राणी जैनधर्म को पाकर हर्षित होता है, उसी प्रकार हर्षित मुख वाले धन ने स्वच्छ अन्त:करण पूर्वक उससे पूछा-"भाई! तुम कहाँ के रहने वाले हो? किस कारण से इस द्वीप में आये हो?"
धन की बात सुन वह बोला-"मैं सुवर्ण द्वीप की ओर जा रहा था। उसी समय पूर्व जन्म में कमाये हुए पापों के समान वायु ने अनगिनती वस्तुओं से भरा हुआ मेरा जहाज तत्काल तोड़-फोड़ डाला। एक पाटिया मेरे हाथ आगया था। उसी के सहारे मैं इस कुडङ्गद्वीप में आ पहुँचा हूँ।" उसका वृत्तान्त सुन धन ने भी अपनी आत्मा-कथा कह सुनाई और बोला-"हम दोनों एक से दुःखी हैं,चलो साथ-साथ घूमें।"
दोनों साथ-साथ भ्रमण करने लगे। किसी समय उन्हें एक तीसरा आदमी मिला। उसे देखकर उन्होंने पूछा-"भाई! तुम किस नगर से यहाँ आये हो?" वह बोला-"लङ्कापुरी की ओर जा रहा था। रास्ते में मेरा जहाज टूट गया और मैं एक पाटिये के आसरे यहाँ आ गया हूँ।" यह सुनकर दोनों बोले- "बहुत ठीक। हम तीनों ही एक से दुःखिया हैं, अतः अपनी अत्यन्त मित्रता हुई।" इसके अनन्तर तीनों ने जहाज भग्न होने का निशान बनाया। एक वल्कल लेकर
तृतीय प्रस्ताव