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________________ कुवलयमाला-कथा [83] वहाँ श्रीधर्मनन्दन गुरु के साधु दिखायी दीख पड़े। उनमें से कितने ही मधुर स्वर से स्वाध्याय कर रहे थे, कोई धर्मशास्त्र का पाठ करते थे, कोई पदस्थ, पिण्डस्थ, रूपस्थ और रूपातीत ध्यान में लीन थे, कोई गुरु के चरणकमलों की सेवा कर रहे थे और कोई-कोई अपनी क्रियाओं में तत्पर थे। उन्हें देखकर राजा विचार करने लगा-'सचमुच, ये जैसा कहते थे, वैसे ही चलते हैं। अब देखना चाहिए आचार्य भगवान् कहाँ हैं और स्वयं क्या कर रहे हैं?' ऐसा विचार कर इधर उधर देखा तो वे, उन पाँचों मुनियों को, जो उसी दिन दीक्षित हुए थे, धर्मोपदेश करते सुनाई दिये। वह, यह सोच कर कि आचार्य उनसे क्या बातें कर रहे हैं? तमाल वृक्ष के नीचे बैठकर गुरु की बातें सुनने लगा। गुरु बोले- "हे देवों के प्यारे साधुओं! यह जीव अनन्त काल तक पृथ्वी जल, तेज, वायु और वनस्पतिकाय में कष्ट सहकर भ्रमण करता द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रियपना पाता है। फिर तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय होता है, तब कहीं महान् दुर्लभ इस मनुष्यजन्म को पाता है। उसमें भी आर्यदेश, उत्तम जाति, उत्तम कुल, सब इन्द्रियों की सम्पूर्णता, नीरोगता, लम्बी आयु, अच्छा मन की वासना, सद्गुरु का योग और उनके वचनों का सुनना, ये सब उत्तरोत्तर महादुर्लभ हैं। इन सब के प्राप्त हो जाने पर भी जिनेश्वर भगवान् का कहा हुआ बोधिरत्न पाना बड़ा कठिन है। बोधि (सम्यक्त्व) प्राप्त करके भी धर्म के फल में संदेह करके, दूसरे-दूसरे धर्मों की अभिलाषा करके, कुतीर्थियों की प्रशंसा करके या उनके परिचय से चार कषाय और पाँच विषयों में मोहित बहुत से जीव उसे वृथा खो देते हैं। कितने जीव ज्ञान ही को प्रधान मान कर लँगड़े आदमी की तरह क्रिया से रहित हो जाते हैं, और कोई-कोई क्रिया को ही कल्याणकारिणी समझकर अँधे की तरह ज्ञान का आदर नहीं करते। इसलिए दोनों ही प्रकार के जीव मोहित होने के कारण संसार रूपी दावानल में गिरकर नष्ट हो जाते हैं।" इस प्रकार गुरु कह रहे थे, तब राजा ने विचारा-'गुरु जो कह रहे हैं, सब सत्य है। किन्तु यह दुर्लभ राज्य, स्त्रियों से उत्पन्न होने वाला सुख और परिजनों से मिलने वाला आनन्द भोग कर मैं बाद में धर्म का आचरण करूँगा।' इस प्रकार विचार करने वाले राजा के मन के विचार गुरु ने अपने ज्ञान से तृतीय प्रस्ताव
SR No.022701
Book TitleKuvalaymala Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar, Narayan Shastri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2013
Total Pages234
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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