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तृतीय प्रस्ताव
अत्यन्त आनन्द दायक कुन्दलता के लिए मेघ के समान श्री धर्मनन्दन गुरु के मुख से कषायों के फल को बताने वाली देशना रूपी वचनामृत का प्यासे की तरह पान करके राजा पुरन्दरदत्त प्रसन्नचित्त से सभा से उठे और अपने घर रवाना हो गये । सूर्य अस्ताचल के शिखर पर जा पहुँचा । राजा ने शाम के कार्य विधिपूर्वक करके विचारा - ' वसन्त ऋतु के इस महोत्सव में वे मुनि क्या करते होंगे? वे जैसा कहते हैं, उसी प्रकार चलते हैं या नहीं ? देखना चाहिए।' इस प्रकार विचार कर राजा, जब चारों ओर अन्धकार फैल गया तब गुप्त रीति से कमर में कटार बाँध कर और हाथ में तलवार लेकर अकेला महल से निकला। रास्ते चलते गली-कूँचों में स्त्री-पुरुषों के द्वन्द्व की और दूती तथा अभिसारिकाओं की आपसी संकेत की बातें सुनता - सुनता राजा चला जा रहा था। थोड़ा आगे जाने पर चौपड़ में उसे एक कृशकाय प्रतिभाधारी मुनि दिखाई दिये । वहाँ गाढ़ अन्धकार छाया हुआ था । एक बैल उनके शरीर से अपना शरीर रगड़ रहा था। दावानल से जले हुए ठूंठ की भाँति विरूप और मन्दर पर्वत की तरह निश्चल मुनिराज को देख राजा सोचने लगा- ' दिन में यहाँ कोई स्तम्भ तो था नहीं, तो क्या इस रूप में धर्मनन्दन मुनि के शिष्य कोई साधु हैं? या कोई दुष्ट पुरुष इस प्रकार खड़ा हुआ है? परीक्षा करनी चाहिए।' ऐसा विचार राजा " मारो मारो" चिल्लाकर तलवार खींच कर उनके पास गया। तो भी वे न घबराये। अब उसे निश्चित होगया कि मुनि ही हैं। उसने स्तुति करते हुए तीन प्रदक्षिणाएँ दीं और आगे बढ़ा। आगे बढ़ने पर नगर का दुर्लङ्घ्य किला मिला। बिजली की तरह राजा उसे लाँघ गया। इसके अनन्तर चलता - चलता राजा उद्यान के पास सिन्दूर वाले कुट्टिम (फर्श ) के पास आ पहुँचा। राजा को तृतीय प्रस्ता