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________________ कुवलयमाला-कथा [81] इतना कहकर चारणमुनि कमल के पत्ते के समान आकाश में विलीन हो गये। हे पुरन्दरदत्त राजन् ! इसके अनन्तर यही मोहदत्त चारणमुनि की आज्ञा मान कर गृहस्थी छोड़ कर मुझे ढूँढता-ढूँढता यहाँ आया है। गुरु के मुख से, इस प्रकार अपना वृत्तान्त सुनकर मोहदत्त बोला-"हे भगवन्! आपने जो कहा, सब सत्य है, जरा भी असत्य नहीं। कृपा करके अब मुझे दीक्षा दीजिये।" मोहदत्त की प्रार्थना सुन अत्यन्त गौरवास्पद श्रीधर्मनन्दन गुरु ने, मोह के दूर हो जाने से अत्यन्त निर्मल चित्त-वृत्ति वाले मोहदत्त को समस्त सुख और सिद्धि मूल जिनेश्वर भगवान् द्वारा प्रतिपादित दीक्षा से दीक्षित किया। श्री धर्मनन्दन गुरु फिर बोले-“हे मन्त्रियों में मुख्य वासव! तुमने यह प्रश्न किया था कि चार गति रूप संसार के प्रथम कारण क्या हैं? उसका उत्तर यह है कि क्रोध, मान, माया, लोभ और मोह ये पाँच महामल्ल ही संसार के कारण हैं। ये ही जीव को दुर्गति में ले जाकर पटकते हैं, ऐसा समझना।" ॥ इति द्वितीयः प्रस्तावः। मोहदत्त की कथा द्वितीय प्रस्ताव
SR No.022701
Book TitleKuvalaymala Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar, Narayan Shastri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2013
Total Pages234
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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