________________
कुवलयमाला-कथा
[79] भी दिखाई न दिया। लगातार तीन बार यह ध्वनि सुनाई दी, तो उसे शङ्का पड़ गयी। उसके मन में एक साथ ही क्रोध और कौतूहल हुआ। हाथ में तलवार ले वह बाग के चारों ओर देखने लगा। इतने में एक पूज्य मुनिराज उसे दिखाई पड़े। वे ऐसे मालूम होते थे, मानो धर्म की साक्षात् मूर्ति ही हों। मुनि की आवाज समझ कर वह उनके पास गया और चरणयुगल में नमस्कार कर बोला- "पूज्य माता के देखते पिता के प्राण लेकर मैं बहन के साथ क्रीड़ा करना चाहता हूँ। सो कैसे? यह मेरा पिता किस प्रकार है? या मेरी माता कैसे? और यह मेरी बहन कैसे लगी?" मुनिराज ने कोशला नगरी से लेकर तोसल की मृत्यु तक सारा हाल कह सुनाया। फिर कहा-"प्रथम तो तू ने अपने पिता को मार डाला, यह एक कुकार्य किया, और दूसरा यह कि अब बहन के साथ विषय-सुख भोगने की चाह करता है, महामोह की लीला को सर्वथा धिक्कार है।" यह वृत्तान्त सुनकर सुवर्णदेवी और वनदत्ता ने नीचा मुँह कर लिया। मोहदत्त भी कामभोग से विरक्त हो गया और शरीर को सर्वथा अपवित्र समझने लगा। उसे प्रबल वैराग्य हो आया। वह बोला- "मुनिराज! अनन्त दुःखों रूपी वृक्षों की जड़ अज्ञान ही है। अज्ञान ही दुःख है और यही भय है। हे पूज्य! मुझ अभागे को अब क्या करना चाहिए? सो कृपा करके आप बताइये, जिससे समस्त पाप जड़ मूल से नष्ट हो जाये।"
भगवान् बोले- "मित्र पुत्र कलत्र(स्त्री) वगैरह सब का त्याग कर, संसार में मूर्तिमान् नौका के समान दीक्षा का आश्रय लो।"
मोहदत्त- तो मुझे दीक्षा दीजिये।
मुनिराज- मैं चारण मुनि हूँ। गच्छ की (प्रतिबन्ध) आज्ञा में नहीं रहता। अतः मैं तुझे दीक्षा नहीं दे सकता हूँ। मैं महान् तीर्थ शत्रुञ्जय की ओर आकाश के रास्ते जा रहा था। शत्रुञ्जय पर्वत अठारह योजन शिखर पर और मूल में पचास योजन विस्तार वाला है। ऐसा शास्त्र के ज्ञाता कहते हैं। उस पर्वत पर तीन लोक को पवित्र करने वाले भगवान् ऋषभदेव स्वयं रहे थे। अतः वह पर्वत सब पर्वतों में श्रेष्ठ है। उस पर्वत पर विराजमान श्री ऋषभ देव के दर्शन जब तक प्राणी नहीं करता, तब तक ही उसके कर्म प्रबल रहते हैं। उस पर्वत से, कर्म रूपी हाथियों के दलन करने में सिंह के समान श्री
मोहदत्त की कथा
द्वितीय प्रस्ताव