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कुवलयमाला-कथा दिया। दिन में चन्द्रमा की कला की भाँति उसका मुख कमल कान्ति- रहित हो गया। पलंग और धरती पर- कहीं भी उसे चैन न पड़ी। दूसरे दिन कामदेव का उत्सव पूरा हो जाने पर वनदत्ता, माता और सखियों के साथ उसी उद्यान के लिए चली। सड़क पर जाते समय राजपुत्र तोसल की नजर उस पर पहुंची। विदेश में रूप, यौवन और सुन्दरता बदल जाने से सुवर्णदेवी उसे पहचान पायी। सिर्फ तोसल को वनदत्ता पर बहुत प्रीति हुई। उसने सोचा-' इस सुन्दर नेत्र वाली कुमारी को धन, पराक्रम या अन्य किसी उपाय से ब्याह लूँ। यह अच्छा हुआ कि वह बाहर के उद्यान की ओर जा रही है। मुझे भी इसी रास्ते से इसी के पीछे-पीछे जाना चाहिए।' तोसल उसी के पीछे जाने लगा। वनदत्ता हथिनी जैसी गति से चलती-चलती बाग में पहुँची। वह वहाँ इधर-उधर घूमने लगी। इतने में अत्यन्त अनुरागी चित्त वाले तोसल ने लोक निन्दा की पर्वाह न कर, लाज का त्याग कर, जीवन की आशा छोड़कर, निर्भय हो तलवार निकाल कर कहा-“भद्रे! यदि तू अपने प्राणों की रक्षा चाहती है तो मेरे साथ क्रीड़ा कर, नहीं तो इस तलवार से तेरा काम तमाम कर दूंगा।" तोसल की यह लीला देख सखियाँ हाय, हाय, करने लगीं। सुवर्णदेवी चिल्लाकर बोली-"लोगों! दौड़ो जल्दी दौड़ो, व्याघ्र की भाँति यह पापी पुरुष मेरी हरिणी की तरह निरपराध पुत्री के प्राण लिये लेता है।" पुकार सुनते ही मोहदत्त कदलीगृह में से तुरन्त बाहर निकल का बोला-"अरे दुष्ट ! नाम न लेने योग्य!! ए अधम निर्लज्ज !!! तू स्त्रियों पर प्रहार करता है? मैं उसकी रक्षा करूँगा। आजा मेरे सामने" मोहदत्त की गर्जना सुन तोसल उसके सामने आया। उसने मोहदत्त के ऊपर तलवार का वार किया, किन्तु कुशल मोहदत्त ने उसे बचाकर सामने प्रहार किया। तोसल यमराज का मेहमान बन गया। इसके अनन्तर मोहदत्त वनदत्ता के सम्मुख आया। वनदत्ता ने जीवनदाता समझ उसे अपना प्रेमपात्र बना लिया। पुत्री के प्राण बचे समझ सुवर्णदेवी बहुत प्रसन्न हुई। मोहदत्त बोला-"भद्रे, विश्वास करो, काँपो मत और निर्भय हो जाओ।" फिर मोहित मोहदत्त गाढ़ आलिङ्गन करके उसके साथ क्रीड़ा करने को उद्यत हो गया। इतने में अकस्मात् ही तेज और मधुर ध्वनि उसके कानों में पड़ी-"अरे! मूढ! अपनी माता को देखते हुए, पिता के प्राण लेकर, बहन के साथ क्रीड़ा करना चाहता है?" अचानक यह आवाज सुन मोहदत्त चारों ओर देखने लगा। परन्तु कोई
द्वितीय प्रस्ताव
मोहदत्त की कथा