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________________ कुवलयमाला-कथा [77] वहाँ से आगे चली। आगे बाघन के पैरों के चिह्न देखकर 'मेरे बालकों को बाधन ने खा लिया' यह सोचती हुई किसी गोष्ठ में किसी भीलनी के घर आयी । उसने उसे अपनी लड़की बनाकर रख लिया। कुछ दिन वहाँ ठहरकर फिर गाँव-गाँव भटकती हुई वह भी पाटलीपुत्र आ पहुँची । दैव योग से वह उसी दूत के घर पहुँची । दूत की स्त्री ने उस लड़की को पालन करने के लिए उसे सौंपी। सुवर्णदेवी उसे पहचान तो न सकी, पर यों ही पुत्री की भावना करती हुई उसका पालन करने लगी। लड़की धीरे-धीरे नवीन यौवन से मनोहार लावण्य वाली सौभाग्य की भूमि और चतुरता में धुरन्धर हो गयी । एक बार मनमोहक और भ्रमर की मधुर गूँज से गुंजायमान वसन्त ऋतु में कामत्रयोदशी के दिन, नगर के बाहर के उद्यान में कामदेव की यात्रा देखने के लिए वनदत्ता अपनी माता और सखियों के साथ गयी । वहाँ वह अपनी इच्छा पूर्व घूम रही थी कि मोहदत्त की नजर उस पर जा पड़ी। एक दूसरे को देखते ही दोनों एक दूसरे पर अनुरक्त हो गये । परस्पर के दर्शन रूपी जल से स्नेह वृक्ष को सींचते हुए बहुत देर तक दोनों वहीं खड़े रहे। इतने में सुवर्णदेवी ने अपनी पुत्री पर मोहदत्त की गाढ़ी प्रीति देख उससे कहा- "बेटी ! यहाँ आये तुझे बहुत समय हो चुका है । तेरे पिता विरह - व्याकुल- चित्त हो गये होंगे। चलो, घर चलो। यदि तुझे कदाचित् कामदेव को देखने का कौतुक हो तो पुत्री, आज का उत्सव हो चुकने पर फिर आकर इच्छानुसार भगवान् कामदेव के दर्शन करना। उस समय उद्यान निर्जन होगा।" इतना कह कर वह वनदत्ता को लेकर उद्यान से बाहर निकली। मोहदत्त ने सोचा- 'अहो, इसका मेरे ऊपर बहुत अनुराग है। सुवर्णदेवी के वचन में अवश्य कुछ न कुछ संकेत है।' इस प्रकार सोचता हुआ मोहदत्त भी उद्यान से बाहर हो गया । वनदत्ता को कामदेव रूपी महापिशाच लग गया । वह इसी स्थिति में सिर्फ शरीर से घर आयी, मन से नहीं । उसका मन मोहदत्त में ही लीन था । घर आकर वह विरह रूपी अग्नि की ज्वाला में जलने लगी । वह अशोकवृक्ष के नवीन अङ्कुर की शय्या पर लेटी हुई तीव्र कामज्वर से पीडित होकर कराहने लगी । मृणाल के तन्तुओं को कड़े की तरह कर लिया, कदली-दल को ओढ़ लिया, सारे शरीर पर चन्दन का लेप किया, तो भी मुँह से निकलती हुई गरम साँसों से उसके होंठ सूखने लगे । कला का अभ्यास, फलों का धारण, पान खाना और आभूषणों का त्याग कर मोहदत्त की कथा द्वितीय प्रस्ताव
SR No.022701
Book TitleKuvalaymala Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar, Narayan Shastri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2013
Total Pages234
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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