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कुवलयमाला-कथा लोभदेव एक सप्ताह में तारा द्वीप आ पहुँचा। वहाँ पहुँचकर वह समुद्र किनारे के वन के शीतल वायु से क्षणभर में ही सचेत हो गया। समुद्र के किनारे कालेकलूटे शरीर वाले, लाल-लाल आँखों वाले यम के दूत जैसे आदमी रहते थे। उन्होंने लोभदेव को पकड़ लिया। लोभदेव ने पूछा-"तुम लोग मुझे क्यों पकड़ते हो?" वे लोग मायाचार से बोले- "हे भद्र! धीरज धरो। खेद न करो। दुःखी अवस्था में फँसे हुए जहाज के व्यापारियों का आव-आदर करना ही हमारा कर्तव्य है।"
इतना कहकर वे यमदूत, लोभदेव को अपने घर ले गये। घर ले जाकर विनयपूर्वक-नम्रता से उन्होंने लोभदेव को आसन पर बिठलाया और स्नान कराया। स्नान के अनन्तर भोजनादि की आवश्यकताएँ पूरी की, तब बोले"हे भद्र ! चित्त में विश्वास रखना और भय-भाजन न बनना।" उन लोगों की बात सुनकर लोभदेव मन ही मन सोचने लगा-'ये लोग कैसे निष्कारण वत्सल हैं?' इधर लोभदेव यह सोच ही रहा था कि, उसी समय उन बेरहमों ने उसे खूब कसकर बाँध दिया और शस्त्र के द्वारा मांस-प्रदेश काटकर उसके शरीर में से माँस और रक्त निकाल लिया। रक्त-माँस निकाल चुकने पर औषध लेप कर शरीर को दुरुस्त किया। रहते -रहते छह महीने बीत चुकने पर फिर पहले की तरह शरीर से रक्त और माँस निकालकर शरीर को दुरुस्त कर दिया। बारम्बार इस प्रकार करते रहने से लोभदेव का शरीर केवल अस्थि-पञ्जर रह गया। इस अवस्था में रहते-रहते बारह वर्ष बीत गये। एक समय की बात है। लोभदेव के शरीर में से हाल ही रक्त-माँस निकाला गया था। सारा शरीर लहू से लथपथ था। उसी समय एक भारण्ड पक्षी ने लोभदेव को उठा लिया। पक्षी समुद्र के ऊपर आकाश में उड़ रहा था। वह उड़ ही रहा था कि दूसरे भारण्ड पक्षी से उसका सामना हो गया। दोनों में लड़ाई होने लगी। इस लड़ा-लड़ी में, लोभदेव भारण्ड की चोंच से छूटकर समुद्र में जा गिरा। समुद्र में गिरते ही खारे पानी के कारण बड़ी वेदना होने लगी। जैसे दुर्जन के वचन से सज्जन को होती है। मित्र-मारण के महान् पातक से मलिन मन वाले लोभदेव को समुद्र ने भी अपनी कल्लोलावलि से धक्के देकर बाहर निकाल दिया। वह किसी जगह किनारे पर पहुँचा। वहाँ के शीतल वायु से क्षण मात्र में सचेत हो, समीप के वन में भ्रमण करने लगा। वनभूमि मरकत मणि की पृथ्वी तरह-तरह के लोभदेव की कथा
द्वितीय प्रस्ताव