SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 78
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [66] कुवलयमाला-कथा सुगन्ध वाले फूलों से व्याप्त थी। यह हाल देख लोभदेव सोचने लगा-'शास्त्रों में सुना जाता है कि देवता स्वर्ग में रहते हैं। किन्तु वे सुन्दरता और असुन्दरता का भेद नहीं समझते। नहीं तो तीन लोक को आनन्द देने वाले इस स्थान को छोड़कर स्वर्ग में क्यों रहते?' ऐसा सोचकर लोभदेव उसी वट-वृक्ष के नीचे बैठ गया। तीव्र वेदना से दुःखी लोभदेव बहुत देर तक विचारता रहा कि-'ऐसा कौन धर्म होगा, जिसके कारण दिव्य भोगों को भोगने वाले देव स्वर्ग लोक में अत्यन्त आनन्द का अनुभव करते हैं? और पाप ऐसा कौन है, जिसके निमित्त से नारकी जीव नरक में अत्यन्त ही दुःख सहन करते हैं। मैंने कौन सा पाप किया होगा, जिससे मैं इस प्रकार के दुःख का भाजन हुआ हूँ।' इस प्रकार विचार करते-करते लोभदेव के मन में यकायक रुद्र श्रेष्ठी का स्मरण हो आया। स्मरण होते ही मानो तीखे तीर का शल्य हृदय में चुभ गया। उसने सोचा-'अहो, मेरे जीवन को धिक्कार है, मुझ पापी ने द्रव्य के लोभ से सभी का भला करने वाले कलानिधि रुद्र श्रेष्ठी को मार डाला। अब मैं कोई ऐसा कार्य करूँ, जिससे प्रिय मित्र के वध से कलुषित हुए आत्मा को तीर्थस्थान में त्याग कर सभी पाप से छुटकारा पा सकूँ।' इस प्रकार विचार करते-करते लोभदेव को थोड़ी देर के लिए नींद आ गई। कुछ देर बाद उठने पर किसी और किसी की मधुर वाणी कान में पड़ी। वाणी सुनकर वह मन ही मन सोचने लगा कि 'यह वाणी संस्कृत, प्राकृत या अपभ्रंश नहीं है। यह तो चौथी पैशाची भाषा है, इसे सुनना चाहिए।' लोभदेव वह भाषा कान लगा कर सुनने लगा। पिशाच परस्पर में बात-चीत कर रहे थे। एक ने कहा - पाप का नाश करने के लिए तप करने वाले तपस्वियों को इस उपवन में रहने का स्थान रमणीय है। दूसरे ने कहा - इसकी अपेक्षा सुमेरु पर्वत और भी सुन्दर है। तीसरा बोला - सुमेरु की अपेक्षा हिम से जिसका शिलातल शीतल है ऐसा हिमालय पर्वत ही विशेष रमणीय है। चौथे पिशाच ने कहा - तुम सब को इस प्रकार न बोलना चाहिए। सब पापों को धो डालने के लिए तो गङ्गा नदी ही प्रधान है। एक ने कहा - पाप का नाश करने के लिए तप करने वाले तपस्वियों को इस उपवन में रहने का द्वितीय प्रस्ताव लोभदेव की कथा
SR No.022701
Book TitleKuvalaymala Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar, Narayan Shastri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2013
Total Pages234
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy