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कुवलयमाला-कथा दिया तो पूछने लगे-"कहाँ गिरा है?" लोभदेव बोला-"यहीं गिरा है। पर मालूम होता है, उसे मगर निगल गया है। अब मैं जीवित रहकर क्या करूँगा? मैं उसके दुःसह वियोग को सहन नहीं कर सकूँगा, अतः प्राणों का त्याग करूँगा?" यह बात सुन नाविक और स्वजनों ने अच्छी तरह समझाया और जहाज चला दिया।
इधर रुद्र सेठ बड़े भारी मगर के मुख-कुहर(मुखरूपी गुफा) की दाढ़ रूपी करोत का भोग बन गया। वह मर कर अकाम निर्जरा के द्वारा रत्न प्रभा पृथ्वी के प्रारम्भ के, एक हजार योजन में बने हुए व्यन्तर भवन में अल्प समृद्धि वाला राक्षस हुआ। वहाँ पहुँचकर विभंग ज्ञान से अपने शरीर को मगर के द्वारा निगलते हुए जहाज को समुद्र में जाते हुए देखकर राक्षस ने सोचा-'अरे इस पापी लोभदेव ने मुझे समुद्र में पटक दिया। इस दुराचारी का इतना साहस! उसने स्नेह सम्बन्ध को कुछ भी न गिना, चित्त में परोपकार-भाव न धारण किया और न सज्जनता ही निभायी, इस प्रकार विचारते-विचारते राक्षस की कोपाग्नि धधकने लगी। उसने मन ही मन सोचा-'इसका काम तमाम करके, तत्क्षण ही उसके समस्त धन का मैं मालिक बनूँ अथवा ऐसा उपाय करूँ कि यह धन न तो उसका ही रहे न औरों के हाथ लगे।' यह सोचकर राक्षस समुद्र में आ धमका। समुद्र में जहाज को देख कर वह प्रतिकूल उपसर्ग करने लगा। मानो मृत रुद्र श्रेष्ठी को देखने के लिए आई हों ऐसी आकाश में काली-काली मेघ-घटाएँ छा गईं। बादल चारों ओर घूमने लगे, मानो अपनी बिजली रूपी
आँखों से रुद्र सेठ को देख रहे हैं, क्योंकि मेघ स्वभाव से ही आर्द्र हृदय वाले होते हैं। इसके अनन्तर जैसे युद्धस्थल में वीर पुरुष तीक्ष्ण बाणों की वर्षा कर देते हैं- वैसे ही अगणित जल धाराओं से मेघ जल की वर्षा करने लगा। मेघों का उदय होने से अखिल विश्व अन्धकारमय जान पड़ने लगा। यह योग्य ही है, क्योंकि संसार में पुत्र पिता के बिलकुल सदृश ही होता है। समुद्र की चञ्चल लहरों और प्रचण्ड वायु-वेग से डगमगाता हुआ प्राणियों के प्राणों को भय उत्पन्न करता हुआ और अनगिनती-क्रय-विक्रय की वस्तुओं से भरा हुआ और समुद्र में चलता हुआ जहाज टूट गया। किन्तु समुद्र में द्वीप की तरह या मरुभूमि (मारवाड़) में पानी की तरह लोभदेव के चोखे प्रारब्ध से एक पटिया उसके हाथ लगा। उसने उसे ही पकड़ लिया। उस पटिया के सहारे-सहारे द्वितीय प्रस्ताव
लोभदेव की कथा