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कुवलयमाला-कथा
[63] अतः अन्य विचारों को अलग कर केवल लक्ष्मी के उपार्जन में सावधान रहना चाहिए। आप मेरे साथ अवश्य रत्नद्वीप चलिए।
रुद्र सेठ- हे वत्स, तू नहीं मानता, तो मैं तुझे बतलाता हूँ सुन। मैं मन्दभाग्य हूँ। अतएव तू ही इस माल का मालिक बन।
लोभदेव ने यह बात स्वीकार कर ली। जहाज तैयार हुआ। माल खरीदा गया। खलासी नियुक्त हुए? ज्योतिषियों ने यात्रा का मुहूर्त निश्चित किया। मुहूर्त देखे, निमित्त देखे, शकुन देखे, शिष्टों का सन्मान किया, देवों की पूजा की, जहाज के सढ तैयार किये, कूप स्तम्भ-मस्तूल ऊँचा किया, लकड़ी का संचय किया, परिग्रह को स्थापित किया, अनाज आदि खाने-पीने की वस्तुओं से जहाज भरा गया और पानी के बर्तन भी लिये गये। इस प्रकार तैयारी करतेकरते प्रयाण का दिन आ पहुँचा। उस दिन दोनों ने हर्षित-चित्त होकर स्नान किया, वस्त्र-आभूषण पहने और फिर परिवार सहित समुद्र किनारे जाकर जहाज में बैठे। जहाज रवाना हुआ। बाजे बजने लगे, झुकान चलाया। जहाज समुद्र में जाने लगा। वायु अनुकूल बहती थी, अतः कुछ ही समय में जहाज रत्नद्वीप पहुँच गया। दोनों आदमी नीचे उतर कर, अच्छी-अच्छी भेंट लेकर राजा के पास गये। राजा के चरण-युगल में भेंट रक्खी। राजा से अच्छा आदर सत्कार पाकर हर्षित चित्त हो दोनों ने क्रय-विक्रय करके खूब धन कमाया। अब दोनों को अपने देश की ओर रवाना होने की उत्कण्ठा हुई। जहाज तैयार कराकर रवाना हुए। ___ वायु की अनुकूलता से जहाज को शीघ्रता के साथ चलते देख, लोभदेव मन ही मन सोचने लगा-'ओहो, जितना चाहते थे, उससे भी अधिक लाभ हुआ। सारा जहाज रत्नों से भर गया है। किन्तु किनारे लगते ही यह रुद्र सेठ हिस्सादार बन बैठेगा, यह ठीक नहीं।' लोभदेव ने इस प्रकार विचार कर, दाक्षिण्य की परवाह न कर, शरीरचिन्ता के लिए बैठे हुए रुद्र को बड़ी निर्दयता से समुद्र में फेंक दिया। जहाज जब तीन योजन की दूरी पर पहुँच चुका, तो लोभदेव जोर-जोर से चिल्लाकर पुकारने लगा-"अरे, दौड़ो, दौड़ो, मेरा मित्र अनेक मकरों से भयंकर इस दुस्तर समुद्र में पड़ गया।" लोभदेव की पुकार सुन खलासी तथा दूसरे स्वजन समुद्र में देखने लगे। जब रुद्र कहीं दिखाई न
लोभदेव की कथा
द्वितीय प्रस्ताव