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कुवलयमाला-कथा बेच कर मैं कुशल-क्षेम से यहाँ आया हूँ।" यह बात सुनकर लोभदेव ने, जिसका मन लोभ में ही लगा रहता है, घर जाने का विचार छोड़ दिया। उसने
और धन कमाने का विचार किया। वह वहाँ से उठकर अपने डेरे पर आया। स्नान-भोजनादि कर चुकने पर रुद्र सेठ के पास वह बात सुना कर बोला"हे तात रुद्र ! रत्नद्वीप जाने से अत्यधिक लाभ हो सकता है, क्योंकि वहाँ नीम के पत्तों से रत्न मिलते हैं। तो मैं यह व्यापार क्यों न करूँ?" लोभदेव की बात सुन रुद्र सेठ ने कहा-“हे वत्स! अर्थ और काम की जितनी इच्छा की जाय वह उतना ही बढ़ता जाता है। कहा भी है लाभाल्लोभो हि वर्धते। अतएव जितना धन कमाया है, उसे लेकर अपने देश जा। समुद्र पार करने में अनेक उपद्रव हो सकते हैं। अब अधिक लोभ न कर। इसी द्रव्य का इच्छानुसार उपयोग कर दीन दुःखियों को दान दे, दुःखित अवस्था वाले सम्बन्धियों का उद्धार कर, धन का फल भोग और अधिक कमाने के लोभ रूपी राक्षस का निग्रह कर। सेठजी की बात सुन लोभदेव बोला
यः कार्ये दुर्गमे धीरः, कार्यारम्भं न मुञ्चति। वक्षोऽभिसारिकेव श्रीस्तस्य संश्रेयते मुदा।।
अर्थात् कठिन कार्य करने में जो धीर पुरुष कार्य के आरम्भ को नहीं छोड़ता है, लक्ष्मी उसके वक्षःस्थल का अभिसारिका की तरह आश्रय लेती हैनिरन्तर परिश्रमी को लक्ष्मी स्वयमेव प्राप्त होती है।
हे पिता जी! प्रारम्भ किये हुए कार्य के निर्वाह करने में ही पुरुष को मन स्थिर रखना चाहिए। अच्छा हो, यदि आप भी मेरे साथ रत्नद्वीप चलें।
सेठ बोले- "तू अकेला ही जा, मैं नहीं चलता।" । लोभदेव- आप क्यों नहीं चलते? न चलने का क्या कारण है?
रुद्र सेठ- मैं सात बार जहाज में बैठकर समुद्र में घुसा, किन्तु सातों ही बार मेरा जहाज भग्न हो गया। इससे मैं जानता हूँ। कि समुद्र सम्बन्धी द्रव्य मेरे भाग्य में ही नहीं है।
लोभदेव- सूर्य सदा उदयाचल पर चढ़ता है, अपने प्रताप का प्रसार करता है और अस्त भी हो जाता है। तो दूसरों की भी ऐसी अवस्था क्यों न होगी?
द्वितीय प्रस्ताव
लोभदेव की कथा