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कुवलयमाला-कथा
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पिता के उपदेश वचन सुन लोभदेव मानो आनन्द के क्षीरसागर में मग्र हो गया। दोनों आँखों से हर्ष के आँसू निकल पड़े। कुटुम्बी जन वापस लौटे। लोभदेव निरन्तर प्रयाण करता दक्षिण दिशा की ओर चलता हुआ कुछ समय में सोपारकपुर आ पहुँचा। उस नगर में केवल पतङ्गों में ही उत्पात १९ दिखायी पड़ता था । वक्रता स्त्रियों की भौंहों में ही थी। कम्प ध्वजाओं में ही होता था । वहाँ की प्रजा में इनमें से कोई बात न थी । सोपारकपुर में प्रामाणिक पुरुषों में ही संवाद होता था । विवाह के समय ही कन्याओं के कर का ग्रहण होता था । दही ही मथा जाता था । सुपारी ही काटी जाती थी । प्रजा में ऐसी कोई बात न थी। उस नगर का हम अधिक क्या वर्णन करें? वहाँ निवास करने वाले मुमुक्षु जन संसार का भली-भाँति उच्छेद करने के लिए सद्धर्म और सत्कर्म में ही चित्त को सावधान रखते थे ।
उस नगर में विश्व को उल्लसित करने वाले यशोदा १२ से परिगत श्रीकृष्ण की तरह तथा समस्त मङ्गलोपचार के समूह वाले महादेव की भाँति गणिकाओं का समुदाय और धर्मात्मा लोग सभी को मुग्ध कर लेते थे। उसी नगर में रुद्र नाम के एक जीर्णसेठ रहते थे । वे गुण- गण के आगार थे । लोभदेव ने उन्हीं के घर ठहरकर कुछ काल में घोड़े बेचे और खूब धन कमाया ।
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इसके अनन्तर लोभदेव का मन घर की ओर जाने को उत्सुक हुआ । उस नगर में कुछ तो वहीं के रईस और कुछ देशान्तर से आये हुए पतित आचरण के वणिक् लोग भी रहते थे । वे सन्ध्या समय एक जगह इकट्ठे जमा होते और परस्पर में प्रीतिपूर्वक वार्तालाप किया करते, खरीद-बेच में आज क्या कमाया है ? आज देशान्तर से क्या माल आया है? इस प्रकार वार्तालाप किया करते थे । वे एक दूसरे को गन्धपान, माला आदि दिया करते थे। एक बार लोभदेव उसी गोष्ठी में बैठा था । उस समय एक वणिक् ने पूछा - " क्या कोई ऐसा देश है जहाँ कम कीमती वस्तु से अधिक मूल्यवाली वस्तु प्राप्त होती हो?" वणिक् की बात सुन एक दूसरा वणिक् बोला- “हाँ, मैं दुस्तर समुद्र को पार कर रत्नद्वीप गया था। मैंने वहाँ नीम के पत्ते देकर रत्न लिये थे । इस प्रकार खरीद
११. ऊँचे उड़ना और उपद्रव ।
१२. लोकयश और दया से युक्त, और श्रीकृष्ण यशोदा से युक्त ।
लोभदेव की कथा
द्वितीय प्रस्ताव