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________________ लोभदेव की कथा इस जम्बूद्वीप में भरतक्षेत्र के मध्यखण्ड में तक्षशिला नामकी एक नगरी है। वह नगरी अपनी रमणीय सम्पत्ति से, अपने मन में स्वर्ग की नगरीअमरावती को भी तुच्छ समझती है। कंगूरों की श्रेणी से शोभायमान प्राकार के बहाने मानों हजार फन वाला शेष नाग उस नगरी का सौन्दर्य देखने आया हो । खाई के जल में प्रतिबिम्बित होने वाला स्फटिक मणियों का प्राकार ऐसा जान पड़ता है मानो वह नगरी भोगवती नगरी को देखने के लिए पाताल में घुसी जा रही है। उसमें सुशिव, १ सदारम्भ, २ वृषाश्रय, ३ स्वभय और स्वशन' ये जातिमान् जन इसी जाति के वृक्षों के उद्यान सरीखे शोभित होते थे। उस नगरी में ऐसे सुवर्णमय बढ़िया-बढ़िया प्रासाद थे, मानो क्रीड़ा के लिए आये हुए रु कुमार हों । अगणित हरियों से प्रसिद्धि को प्राप्त हुई और निरन्तर जय से शोभित इस नगरी को देख लज्जित होकर ही स्वर्गपुरी मानो अदृश्य हो गई है। उस नगरी में बाहुबली ने श्री ऋषभदेव स्वामी के चरणन्यास की जगह एक हजार आरा वाला धर्मचक्र बनाया था । उस नगरी में लोकों के चित्त उत्कष्ट स्नेह में लालसा वाले थे और मुनियों के चित्त मुक्ति के स्नेह में लालसायुक्त १. अच्छे मङ्गलवाले लोग और अच्छे पुण्डरीक वृक्षों वाला उद्यान । २. अच्छे आरम्भ वाले । ३. वृष= धर्म का आश्रय लेने वाले वृष नामक ओषधि का आश्रय लेने वाले । ४. अच्छी तरह अभय = निडर, अच्छे अभय वृक्षों वाला उद्यान । अच्छा भोजन करने वाले और अच्छे अशन वृक्ष वाला उद्यान । ५. ६. पण्डित और इन्द्र । ७. विजय और जयन्त इन्द्र का पुत्र । लोभदेव की कथा द्वितीय प्रस्ताव
SR No.022701
Book TitleKuvalaymala Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar, Narayan Shastri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2013
Total Pages234
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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