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कुवलयमाला-कथा
चारित्र रूपी मलयाचल पर्वत के सुन्दर चन्दन वृक्ष के समान श्रीधर्मनन्दन गुरु फिर बोले - " जो मनुष्य क्रोधादिक को किनारे करके भी लोभ को लात नहीं मारते वे श्याम लोहे के गोले की तरह भवसागर में डूब जाते हैं। संसार कान्तार में विवेक प्राणों के हरने वाले लोभसर्प से स्पष्टतया डसे हुए जीव, अपना कुछ भी हिताहित नहीं समझ सकते । लोभी प्राणी में रही हुई गुणश्रेणी भी अग्नि से तपाए हुए लोहे के गोले के ऊपर निर्मल हुई जल की बूँद के समान तत्काल विलीन हो जाती है। समुद्र जैसे असीम जल से तृप्त नहीं होता, अग्नि सुमेरु पर्वत के बराबर ईंधन के ढेर से तृप्त नहीं होती, इसी तरह ( लोभी) प्राणी अटूट धन से भी संतुष्ट नहीं होता । हे पुरन्दरदत्त राजन् ! लोभ के वश में फँसा हुआ प्राणी इस पुरुष की तरह द्रव्य से हाथ धो बैठता है, मित्र की हत्या कर डालता है और स्वयं दुःखसागर में पड़ता है ।" यह सुनकर राजा ने निवेदन किया'भगवन् ! वह कौन पुरुष है ? और उसने क्या किया है ।" गुरुराज बोले- “हे राजन्! यह आदमी जो तुम्हारे पीछे और वासव मन्त्री के दाहिनी ओर बैठा है, जिसका अत्यन्त कृश शरीर हड्डियों के ढाँचा का ही मालूम होता है और जो ऐसा जान पड़ता है, मानो साक्षात् लोभ ही की मूर्ति हो, इसने लोभ के अधीन होकर जो काम किया है, वह एकाग्रचित्त होकर सुनो
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द्वितीय प्रस्ताव