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कुवलयमाला-कथा स्थाणु- देव! मेरा मित्र शरीर से श्याम, पिंजर नेत्र वाला और पतला है।
सेनापति- भद्र! तू ने सम्पूर्ण लक्षणों से युक्त बहुत बढ़िया दोस्त खोजा है, जिससे तुझे कुंए में गिरना पड़ा? तुम अपने रत्न देखकर पहचान सकते हो?
स्थाणु- हाँ, पहचान सकता हूँ।
सेनापति ने रत्न दिखाये। स्थाणु ने उन्हें पहचान कर कहा-"आपने कब और कैसे कहाँ से ये रत्न पाये? क्या मेरे मित्र को मारकर ये रत्न ले लिये हैं?" ... सेनापति- तेरे मित्र को हमने मारा नहीं, बाँधकर सिर्फ रत्न ले लिये हैं। इतना कहकर सेनापति ने करुणा से स्थाणु को पाँच रत्न दे दिये। रत्न लेकर स्थाणु अपने मित्र की खोज में निकला। वह एक गहन वन में पहुँचा तो क्या देखता है कि मित्र की भुजाएं वेला के तन्तुओं से बाँधी हुई हैं। दोनों पैर गठड़ी की भाँति बँधे हुए हैं और मुँह नीचे की ओर लटका हुआ है। मित्र को ऐसी दशा में बैठा देखकर 'हाय, हाय! करते हुए स्थाणु ने उसके सब बन्धन खोले
और दयापूर्वक कहा- "मैं ने नया जन्म पाकर पाँच रत्न पाये हैं। उनमें से अढाई तुम्हारे और अढाई हमारे। रंज न करो।" ऐसा कहकर स्थाणु उसे वन की सीमा पर आये हुए एक गाँव में ले गया। वहाँ कुछ दिनों में स्थाणु ने औषध आदि करके मायादित्य के घाव वगैरह ठीक करके उसे चंगा कर दिया। मायादित्य ने सोचा- 'मैंने ऐसा अनुचित बर्ताव किया तो भी स्थाणु कैसा परोपकारी है? अब मुझे क्या करना चाहिए? मुझ पापी- मायावी ने पहलेपहल रत्नों पर हाथ साफ किया, मित्र को कुंए में पटका, फिर झूठ बोलकर उसे ठगा। मुझे नरक में भी स्थान न मिलेगा। अतः अब यही उचित है कि अग्नि में प्रवेश करके अपनी आत्मा को सुवर्ण की तरह निर्मल करूँ।' इस प्रकार विचार करके मित्रवञ्चना रूपी पाप से उत्पन्न हुई चिन्ता के संताप से संतप्त होकर मायादित्य, स्थाणु और दूसरों के रोकने पर भी चिताग्नि में प्रवेश करने के लिए तैयार हो गया। लेकिन गाँव के बड़ों-बूढ़ों के बहुत समझाने से, मित्र-वञ्चना से उत्पन्न पाप के निवारण के लिए स्थाणु को साथ लेकर समस्त लोकप्रसिद्ध तीर्थो की आराधना करता हुआ यहाँ आकर बैठा है।"
गुरु के मुख से अपना यथार्थ वृत्तान्त सुनकर मायादित्य बोला- "दया के निवास रूप पूज्य गुरु, माया से मुग्ध हुए चित्त से मैंने जो मित्रद्रोह किया
द्वितीय प्रस्ताव
माया पर मायादित्य की कथा