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________________ कुवलयमाला-कथा [55] कुंए में पटक दिया है। मुझे भी बाहर निकालो।" यह सुनकर चोरों ने अपने सेनापति को सूचना दी कि किसी ने इस कुंए में किसी आदमी को पटक दिया है। सेनापति बोला-"अरे! जल खींचना बन्द करो। पहले उसी विचारे को बाहर निकालो"। सेनापति के आदेश को सुनकर उसके अनुचरों ने उसे तुरन्त कुंए के बाहर निकाल लिया। सेनापति ने स्थाणु से पूछा- "हे भद्र ! तू कहाँ का रहने वाला है? यहाँ कैसे आया है? तेरा नाम क्या है? किसने तुझे इस जीर्ण कूप में पटका था?" स्थाणु- देव! पूर्वदेश से हम दो आदमी दक्षिण की ओर गये थे। वहाँ कुछ समय में हमने पाँच-पाँच रत्न कमाये और खुशी-खुशी अपने देश की ओर चल दिये। चलते-चलते रास्ता भूल गये और इस अटवी में आ फँसे। यहाँ आते ही प्यास के मारे प्राण सूखे जाते थे। पानी की टोह/खोज करने लगे। बस, तृषा से तप्त हमने यह जीर्ण कूप देखा। इसके बाद क्या हुआ? सो हे देव! हम ठीक नहीं जानते। हाँ, इतना अलबत्ता जानता हूँ कि मुझे किसी ने कुए में पटक दिया। किन्तु जैसे धर्मोपेदश के कथन से गुरु प्राणियों को संसार से बाहर निकालता है, उसी प्रकार आपने दया करके मुझे कुंए से बाहर निकाला है। सेनापति- केवल उसी दुराचारी ने तुझे कुंए में पटका है। स्थाणु- नहीं, नहीं, शान्तं पापम्। प्राणों से भी अधिक प्यारे मेरे साथ वह इस प्रकार का चाण्डालोचित दुष्ट बर्ताव कैसे कर सकता है? सेनापति- इस समय वह कहाँ है? स्थाणु- मुझे मालूम नहीं। स्थाणु की बात सुनकर सब चोर मुस्कुराकर बोले- "सदा सरल स्वभावी यह बेचारा कुछ जानता नहीं है। इसका चित्त तो स्वच्छ ही है।" सेनापति- हम लोगों ने जिससे रत्न छीने हैं, वही इसका मित्र मालूम होता है। चोर- जी हाँ, संभव है। सेनापति- तेरा वह मित्र कैसा है? माया पर मायादित्य की कथा द्वितीय प्रस्ताव
SR No.022701
Book TitleKuvalaymala Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar, Narayan Shastri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2013
Total Pages234
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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