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________________ [54] __ कुवलयमाला-कथा कुंआ दिखाई दिया। कुंआ देखकर दुष्टबुद्धि मायादित्य ने सोचा-'इसे कुए में गिरा देना, यही सबसे अच्छा उपाय है।' यह सोचकर वह बोला-"मित्र स्थाणु! देखकर बताओ, कुए में कितना गहरा पानी है? जिससे मैं उसी मुआफिक लताओं के तन्तुओं का मजबूत रस्सा बट डालूँ यह सुनकर सरलचित्त महानुभाव (स्थाणु) जल की गहराई देखने लगा। इतने में मोह से मुग्ध चित्त मायादित्य ने लजा की परवाह न करके, प्रीति की अवगणना करके, दाक्षिण्य को तिलाञ्जलि देकर परलोक के विचार को दूर करके और सज्जनों के मार्ग का तिरस्कार करके जल का माप देखते स्थाणु को कुंए में ढकेला दिया। स्थाणु शेवाल पर गिरा। इससे उसके शरीर को कुछ ज्यादा चोट न पहुँची। विश्वस्त चित्त वाले स्थाणु ने विचारा-'ओह! पहले पहल तो दरिद्रता ने अड्डा जमाया, फिर जंगलों में मारे मारे फिरे, उसमें भी प्यारे मित्र का वियोग भोगना पड़ा। ये तीन बातें तो दुष्ट दैव से प्राप्त हुईं। लेकिन मुझे कूप में किस निर्दय हृदय वाले ने पटका? यहाँ मायादित्य ही निकट था, दूसरा तो कोई था ही नहीं तो क्या उसी ने मुझे कुंए में पटका होगा? नहीं, नहीं यह तो असंभव है। सचमुच मैं ने यह खोटा विचार किया। कदाचित् वायु से मेरु पर्वत की चोटी काँप उठे, सूर्य पश्चिम में उदित हो जाय, परन्तु मित्र कदापि ऐसा काम नहीं कर सकता। अहो, अनेकानेक संकल्प विकल्प करने वाले मेरे चित्त को धिक्कार है। निस्सन्देह मेरे पूर्वजन्म के वैरी किसी राक्षस या पिशाच ने मुझे कुंए में पटक दिया है।' इस प्रकार विचार करता हुआ स्थाणु इस विकट दशा में भी स्वस्थ चित्त बना रहा। सच है- "सज्जनों का ऐसा ही स्वभाव होता है।" ___ इधर मायादित्य ने सोचा-'अहो, जो करना था, कर लिया। अब इन दसों रत्नों का फल भोगना चाहिए।' यह विचार करता हुआ मायादित्य वन से निकलने के लिए घूमने लगा कि इतने में उसे चोरों का सरदार दिखाई दिया। उसने उसे पकड़ लिया और रत्न छीन लिए। इसके बाद वह चोर सरदार फिरता-फिरता दैवयोग से असाधारण प्यास का मारा उसी पेड़ के नीचे आ पहुँचा। उसने चोरों को हुक्म दिया- "अरे सैनिकों! कुंए में से पानी खींचो। सरदार की आज्ञा सुनकर चोरों ने पलाश के पत्तों के दोनों में पत्थर रखकर लताओं के तंतुओं के रस्से से बाँधकर जल खींचने के लिए उसे कुए में डाला। कुंए में पड़े हुए स्थाणु ने देखकर जोर से कहा- "दुर्दैव से किसी ने मुझे इस द्वितीय प्रस्ताव माया पर मायादित्य की कथा
SR No.022701
Book TitleKuvalaymala Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar, Narayan Shastri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2013
Total Pages234
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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