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________________ कुवलयमाला-कथा [53] मैं विलाप करने लगा और बेकसूर ही मुझे सिपाहियों ने एक कोने में डाल दिया। मैं वहीं पड़ा रहा। दोपहर के समय कोई स्त्री कृपा करके मेरे लिए उचित आहार लेकर आई। वह स्त्री मुझे सुन्दर रूप वाला देखकर मुझ पर आसक्त हो गई। उस जगह दूसरा कोई भी न था। मैंने उससे पूछा-“भद्रे! यदि तू मुझे सब बात सच-सच कहे, तो मैं पूछू।" तब वह बोली-" हे सुन्दर ! मैं सब सच-सच कहूँगी।" मैं ने पूछा-"मुझ निरपराध को सिपाहियों ने क्यों पकड़ा है?" वह बोली-" हे सुभग! इस नवमी के दिन मेरा पति देवी को बलि-दान करने वाला है। देवी की आराधना के लिए तुम्हें चोर कहकर कपट से पकड़ लिया है।" यह सुनकर मुझे अपने मरण का बहुत भय हुआ। मैं ने उससे फिर पूछा-" मेरे जीवित रहने को क्या कोई उपाय भी है? हो, तो कहो।" उसने कहा- "तुम्हारे जीवित रहने का कोई उपाय नहीं और मैं अपने पति की द्रोहिणी हो नहीं सकती तो भी तुम्हारे ऊपर मुझे बहुत स्नेह उत्पन्न होता है, अतः मेरी बात सुनो। नवमी के दिन सारा कुटुम्ब मेरे स्वामी के साथ तीर्थस्थान को स्नान करने जायगा। उस समय तुम्हारा रक्षण करने के लिए दोएक ही आदमी होंगे।" यह बात सुनकर मुझे कुछ हिम्मत बँधी। इसके बाद नवमी के दिन मौका देखकर मैं उस घर से बाहर भाग निकला। कोई देख न लेवे, इस प्रकार ठिकाने-ठिकाने तुम्हें खोजता हुआ यहाँ सरल और घने वानीर (एक प्रकार का घास) वाली नर्मदा के किनारे आया। इतने में तुम दीख पड़े। हे मित्र! तेरे दुस्सह विरह के समय मैंने इस प्रकार के कष्ट झेले।" यह वृत्तान्त सुनकर उसे सत्य समझने वाले स्थाणु के नेत्र अश्रुजल से भीग गये। अनन्तर दोनों मित्र मुँह धोकर आहार करके वहाँ से रवाना हुए। रास्ता भूल जाने से वे दिङ्मूढ हो गये। उनकी दृष्टि भयभीत हो गई। वे दोनों संसार की तरह दुस्तर किसी अरण्य में घुसे। हम कहाँ आ पहुँचे हैं? कहाँ जायेंगे? उसकी उन्हें खबर न पड़ी। आगे चलते-चलते स्थाणु ने कहा-"मुझे भूख सता रही है। रत्नों की गाँठ तू ले ले। कदाचित् मेरे पास से गिर पड़े।" यों कहकर उस ने गाँठ मायादित्य को सौंप दी। गाँठ लेकर मायादित्य ने सोचा"अहो, जो काम मेरे करने का था, वह इसने स्वयं ही कर दिया। फिर दोपहर हुए सूर्य की किरणें खोपड़ी तपाने लगीं। दोनों को खूब प्यास लगी। दोनों इधरउधर पानी की खोज करने लगे। ढूँढ़ते-ढूँढ़ते बड़ के पेड़ के नीचे उन्हें एक माया पर मायादित्य की कथा द्वितीय प्रस्ताव
SR No.022701
Book TitleKuvalaymala Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar, Narayan Shastri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2013
Total Pages234
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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