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________________ [52] कुवलयमाला-कथा धवल इव योऽत्र विधुरः, स्वजनो नो भारकर्षणे प्रवणः। स च गोष्ठाङ्गणभूतल-विभूषणं केवलं भवति।। 1। भावार्थ- जो स्वजन महोक्ष धवल सांड की तरह भार ढोने में प्रवीण नहीं होता है, वह तो गोष्ठाङ्गण का विभूषण ही होता है। यह सुभाषित सुनने से स्थाणु को भी एक श्रलोक याद आ गयाअथ क्षितौ विपत्तौ च, दुःसहे विरहेऽपि च। येऽत्यन्तधीरता-भाजस्ते नरा इतरे स्त्रियः॥ अर्थात् पृथिवी पर जो मनुष्य विपत्ति आने पर और दुस्सह विरह होने पर भी अत्यन्त धीरता धारण करते हैं वे ही पुरुष हैं, और दूसरे स्त्रियाँ हैं। किसी प्रकार वह रात्रि व्यतीत करके स्थाणु ने सोचा-'यदि कदाचित् मेरा मित्र मर गया होगा, तो उसके पाँचों रत्न मैं उसके कुटुम्बी जनों को दे दूंगा।' इस प्रकार सोचता-विचारता हुआ शुद्धबुद्धि स्थाणु अपने गाँव की ओर चला। मार्ग में चलते हुए अनुक्रम से नर्मदा नदी के किनारे रूखे चेहरे और कान्ति रहित शरीर को लिए हुआ मायादित्य दिखाई दिया। मायादित्य अपने मित्र स्थाण को देखकर गाढ़ आलिङ्गन करके कपटभाव से अपना बनावटी वृत्तान्त सुनाने लगा-" हे मित्र! उस दिन मैं तुम्हारे पास से रवाना होकर गाँव में भिक्षा के लिए वहाँ घर-घर घूमता -घूमता एक धनाढ्य के घर में घुसा। वहाँ मुझे किसी ने भिक्षा न दी। मैं थोड़ी देर वहीं खड़ा रहा। इतने में यमदूत के समान उस धनिक के क्रोधान्ध सिपाहियों ने मुझे "चोर चोर" कह कर खूब मार मारतेमारते गृहस्वामी के हवाले कर दिया। उसने सिपाहियों से कहा-"इस चोर को पकड़ा सो बहुत अच्छा किया। इसने अपना कुण्डल चुराया है। अतः इसे खूब सावधानी से पकड़े रखना। मैं राजद्वार में जाकर सूचना करता हूँ।" यह सुनकर मैं ने विचार किया भुजङ्गगतिववक्रचित्तेन विधिना नृणाम्। अन्यथा चिन्तितं कार्यमन्यथैव विधीयते।। सर्प की गति की तरह वक्र चित्त वाले, विधि से, मनुष्य कुछ चाहते हैं और होता कुछ और ही है। द्वितीय प्रस्ताव माया पर मायादित्य की कथा
SR No.022701
Book TitleKuvalaymala Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar, Narayan Shastri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2013
Total Pages234
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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