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कुवलयमाला-कथा
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स्थाणु ने कहा- " मित्र ! मेरा शरीर रास्ते की थकावट से अत्यन्त दुःखी हो गया है । मुझ में भिक्षा के लिए जाने की शक्ति नहीं है। अतः आज हम बढ़िया मांडिया खावें।” यह सुनकर मायादित्य ने कहा - " मित्र ! तुम ही गाँव में जाकर बनवा लाओ। मैं इस काम में चतुर नहीं हूँ । लेकिन जल्दी आ जाना।" स्थाणु ने कहा “ठीक है, मैं ही जाता हूँ । पर इस रत्नों की गाँठ का क्या करना चाहिए?" मायादित्य बोला - " इस नगर की चाल-ढाल को कौन जाने? तुम गाँव में जाओ, और कदाचित् कोई छीन ले तो अच्छा है कि इसे मेरे ही पास रहने दो।" स्थाणु उसके हाथ में रत्नों की गाँठ सौपकर गाँव में घुसा ।
इधर मायादित्य ने सोचा - ' किसी तरकीब से यह गाँठ मेरी हो जाय, तो मेरा परिश्रम सफल हो।' इस प्रकार विचार कर उस पापबुद्धि वाले मायावी मायादित्य ने उस गाँठ सरीखी ही गाँठ कंकरों की तैयार की। इतने में हलवाई की दुकान बन्द होने से बनवाये बिना ही स्थाणु वापस लौट आया और मित्र को देखकर बोला - " मित्र ! आज तुम्हारे नेत्र भय - भ्रान्त से क्यों दिखाई देते हैं?" मायादित्य ने उत्तर दिया- " तुम्हें आते हुए मैंने पहचाना नहीं ।" मैंने समझा "कोई चोर आ रहा है" । इसी से मैं डर गया । यह लो, मुझे इस रत्नों की गाँठ का क्या करना है?" इतना कहकर वहाँ से चम्पत होने के लिए व्याकुल- 1 - चित्त मायावी ने भूल से सच्चे रत्नों की गाँठ देदी और स्वयं नकलीकंकरों की गाँठ लेकर, मैं भिक्षा के लिए जाता हूँ" ऐसा कपट से कहकर एक रात-दिन में बारह योजन लम्बी सफर की। इतनी दूर जाकर, गाँठ खोलकर देखा तो कंकर ही कंकर नजर आये। यह देखकर वह ठगा हुआ या चुराया हुआ सा हो गया ।
पश्चात् स्थाणु के पास से सच्चे रत्नों की गाँठ लेने के लिए वह कपटी चिरकाल तक इधर-उधर सर्वत्र घूमता फिरा । इधर गाँव के बाहर ठहरे हुए स्थाणु ने बहुत देर तक उसकी वाट देखी। जब वह न आया तो खूब खोज की, पर वह न मिला । अन्त में मित्र के गुणों का स्मरण करके अनेक प्रकार से विलाप करते-करते उसने वह दिन बिता पाया। रात हुई तो किसी देवमन्दिर में जाकर सो रहा। रात्रि के अन्तिम पहर में गुजरात के रईस किसी मुसाफिर ने इस प्रकार गाया
माया पर मायादित्य की कथा
द्वितीय प्रस्ताव