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कुवलयमाला-कथा कृतघ्न, चुगलखोर और सभी दुर्गुणों का अखाड़ा था। क्योंकि वह निरन्तर मायाचार करने की टेव वाला था, इससे लोगों ने उसका गङ्गादित्य नाम मिटाकर मायादित्य नाम रक्खा था। हे राजन् पुरन्दरदत्त! वही यह मायादित्य है। ___ उस गाँव में स्थाणु नाम का एक वणिक्पुत्र रहता था। उसके पूर्व पुण्यपुञ्ज का नाश होने से वह धनहीन हो गया था। उसकी प्रीति इस मायादित्य के साथ हो गई। परन्तु स्थाणु सरल स्वभावी, कृतज्ञ, प्रियवादी, दयालु, दूसरों को न ठगने वाला, दीन जनों का प्रेमी और निर्दोष था। स्थाणु को गाँव के बड़े-बूढों ने बहुत समझाया कि तुम मायादित्य की संगति छोड़ दो परन्तु उसने न माना क्योंकि वह स्वयं शुद्ध हृदय का आदमी था। ठीक ही कहा है
"जानाति साधुर्वक्राणि, दुर्जनानां मनांसि न।
आर्जवेनार्पयत्येव, स्वकीयं मानसं परम्।।" अर्थात- दुष्टों के कपटी मन का पता सज्जनों को नहीं लगता। अतः सरलता से वे अपना मन उन्हें अर्पण कर देते हैं।
इसके अनन्तर सज्जन और दुर्जन, पण्डित और मूर्ख, हंस और बगुले की तरह, तथा भद्रजाति और बर्बर जाति के हाथियों की तरह स्थाणु की निर्मल भाव से और मायादित्य की कपटभाव से प्रीति बढ़ती गई। दोनों को एक दूसरे का विश्वास हो गया। एक बार दोनों में धनोपार्जन करने के तरह-तरह के विचार करने लगे। फिर दोनों कुटुम्बी जनों की आज्ञा ले माङ्गलिक उपचार कर मार्ग के लिए पाथेय-कलेवाटोसा-ले दक्षिण दिशा की ओर रवाना हुए। रास्ते में अनेक पर्वत नदियाँ, वृक्ष और जीव-जन्तुओं से भरे दुर्गम वन को पार करके दोनों स्वर्गपुर के समान प्रतिष्ठानपुर में आये। वहाँ विविध हजार प्रकार के व्यापार करके बड़े कष्ट से उन्होंने पाँच-पाँच हजार सोनामोहर कमाई। इसके बाद वे लोग स्वदेश लौटने को तैयार हुए। उस समय उन्होंने सोचा-'इस द्रव्य की चोर और भीलों से रक्षा करना बहुत कठिन है।' इस तरह सोचकर दस हजार मोहरों के दस रत्न खरीदे और फटे कपड़े के छोर में बाँध, मूड मुँडा धातु से रंगे वस्त्र पहनकर दूर से आने वाले तीर्थयात्री का भेष बनाया। रास्ते में कहीं भीख माँगते, कहीं पैसे देकर जीमते और कहीं-कहीं अन्नक्षेत्र में जीम लेते थे। इस प्रकार चलते-चलते वे लोग किसी गाँव के निकट आये। वहाँ
द्वितीय प्रस्ताव
माया पर मायादित्य की कथा