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कुवलयमाला-कथा
[45] ही उसने फाँसी तोड़ दी, फिर जल सींचा। अब वह होश में आगई। मानभट ने उससे कहा "प्रिये! तुम्हारा किसने और क्या अपराध किया है? तू कुपित क्यों हो गई है? निष्कारण ही अपने और मेरे जीवन को क्यों संशय के झूले में डाल दिया है?"
यह सुनकर गौराङ्गी बोली "जहाँ सौभाग्यवाली और कमल के पत्ते के समान विशाल नेत्रों वाली श्यामागी रहती हो, वहीं तुम भी जाओ।"
मानभट- प्रिये! मैं इस वृत्तान्त से बिलकुल अनजान हूँ। श्यामाङ्गी कौन है? किसने और कब उसे देखा है? तुझसे किसने कहा? सारा हाल मुझ से कहो।
___ क्रोधाग्नि से जलती-जलती गौराङ्गी बोली- "हाँ, अब भोले बनते हो? जब तुम झूला पर चढ़े थे, तब सब सहेलियों के सामने उसका नाम लिया था। अब सब भूल गये?" इतना कहकर महापवित्र वन-वासी मुनि की नाई चुप्पी साधकर मौन रखकर रह गई।
मानभट ने सोचा 'यह तो अकारण कोप के पर्वत पर चढ गई है।' यह सोच उसने बार-बार समझाया पर वह न बोली। वह अनुपम मौनावलम्बन किये ही रही। तब मानभट ने विचारा-'इसका चित्त क्रोध से भर गया है? इसलिए उसकी अनुनय-विनय करने के लिए पाँवों में पड़ना ही हितकारक है' उसने ऐसा ही किया, किन्तु इससे वह जरा भी शान्त न हुई वरन् अधिक क्रुद्ध हो गई, जैसे अग्नि में घी डालने से वह और भी भभक उठती है। अन्त में मानभट ने निश्चय किया कि अनुनय-विनय करने पर भी यह मृगाक्षी प्रसन्न नहीं होती, सो ठीक ही है। स्त्रियाँ प्रायः ऐसी ही होती हैं। यदि मार्ग में स्त्री रूपी दुस्तर नदी न हो, तो मोक्षाभिलाषी पुरुषों के तो उल्टी मोक्ष-लक्ष्मी बगल में ही समझिये। किन्तु ये स्त्रियाँ महान् सन्ताप का कारण हो जाती हैं। स्त्रियाँ बिजली की तरह चञ्चल प्रकृति की होती हैं। उनका राग सन्ध्या के राग-लालिमा की तरह देखते-देखते नष्ट हो जाता है और वे नदी की तरह नीचगामी होती हैं। महान् हिम की भाँति स्त्रियाँ महान् पुरुषों के मन में रहे हुए विवेक रूपी कमल का सत्तानाश कर डालती हैं। ऐसी स्त्रियों को भला, कौन विवेकी चाहेगा? विवेकरूपी पर्वत पर चढे हुए भरपूर गुण वालों को भी, यह स्त्री देखने मात्र
मान पर मानभट की कथा
द्वितीय प्रस्ताव