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कुवलयमाला-कथा यथास्थान बैठे हुए थे। वह अपने स्वामी और श्रेष्ठ मन्त्रिमण्डल को नमस्कार करके अपने स्थान पर बैठने चला तो एक पुलिन्द नामक राजकुमार को बैठा पाया। मानभट उससे बोला " हे पुलिन्द! यह मेरे बैठने की जगह है, तुम उठ जाओ।" पुलिन्द बोला-"मैं अनजान में यहाँ बैठ गया हूँ। अपराध क्षमा करो, फिर कभी न बैलूंगा।" यह सुनकर दूसरे सभासदों ने मानभट को और भी भड़काया "अरे मानभट! तेरी जगह पुलिन्द बैठा है। सभी मानी पुरुष जीवन
और धन को तिनके की तरह त्याग देते हैं, परन्तु कभी अनादर नहीं सहते। मान ही सब से महान् धन है। द्रव्य जो आँकडे की रूई की तरह हल्का है और मान मन्दराचल की तरह भारी है। इसलिए मानी आदमी द्रव्य का त्याग कर सकता है, पर मान का कभी त्याग नहीं करता।" इस प्रकार दूसरे लोगों का कथन सुनकर निर्दय मानभट का हृदय क्रोध से धड़कने लगा। उसने अनार्य जनों की तरह कार्य-अकार्य का विचार छोड़कर अपने प्राणान्त की भी परवाह न कर पुलिन्द की छाती में कटार घुसेड़ दी। पुलिन्द धरती पर जा गिरा। इसके अनन्तर मानभट सभा से बाहर भाग निकला। पुलिन्द के पक्ष के राजकुमारों ने उसका पीछा किया, परन्तु वह अत्यन्त वेग से दौड़ता-दौड़ता अपने घर जा पहुँचा। वहाँ पहुँचते ही अपराधी सर्प की तरह घर में घुस गया - और पिता को सारा वृत्तान्त कह सुनाया। सब वृत्तान्त सुनकर मानभट के दादा = पितामह ने कहा- "बेटा! जो किया सो किया, पर अब परदेश में चल देना चाहिए या उसके पीछे अग्नि में प्रवेश करना चाहिए। उसके पीछे अग्नि में प्रवेश करना तो ठीक नहीं। परदेश चल देना ही उचित है, अन्यथा प्राण गँवाना पड़ेगा। बेटा! जल्दी सवारियाँ तैयार कर और उनमें घर की तमाम सारासार वस्तुएँ भरकर रेवा नदी की तरफ चलो।" ऐसा निर्णय कर सवारियाँ लहस कर क्षत्रभट और वीरभट तो चल दिये परन्तु मानभट पीछे लौट आया। उसे उसके पिता ने बहुत रोका, परन्तु अपने पराक्रम के घमण्ड में आकर अपने कुछ आदमियों को साथ रखकर वहीं ठहर गया, क्योंकि संग्राम करने में शूरवीर के दोनों हाथों लड़ रहते हैं। मरे तो स्वर्ग के सुख मिलते हैं और जीत गये तो लक्ष्मी मिलती है।
___ मानभट वापस लौटकर इस प्रकार विचार ही रहा था कि इतने में पुलिन्द की सेना आ पहुँची। दोनों में युद्ध छिड़ गया। मान रूपी घोड़े पर सवार होकर मानभट ने अपनी बढ़िया तलवार खींचकर उसकी सारी सेना को तितर-बितर द्वितीय प्रस्ताव
मान पर मानभट की कथा