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मान पर मानभट की कथा
अवन्ती देश में लक्ष्मी से गुर्वी = भारी देवसभा की तरह विशाल और सुन्दर शाल (गढ़) से शोभित विशाला नाम की नगरी है। उस नगरी के लोग सिप्रा नदी के सुलभ अमृत के समान पानी को पीकर अमृत पीने वाले देवताओं की भी प्रशंसा नहीं करते- उन्हें भी किसी खेत की मूली नहीं समझते। उस नगरी में आकाश चुम्बी हवेलियों के छज्जों पर बैठी हई स्त्रियाँ, उस नगरी की शोभा आई हुई देवाङ्गनाओं की तरह शोभित होती थीं। धनिकों के महलों में
और पण्डितों के घरों में गमन-आगमन करने वाली लक्ष्मी और सरस्वती में परस्पर प्रेम बढ़ गया था। उस नगरी के ईशान कोण में एक योजन दूरी पर कूपपुण्ड्र नाम का गाँव है। उस गाँव में पहले के राजवंश में पैदा हुआ एक क्षत्रभट नाम का अभागा बूढ़ा ठाकुर रहता था। उसका वीरभट नामका इकलौता बेटा था। वह उसे प्राणों से भी प्यारा था। __एक बार वह पुत्र को साथ लेकर उज्जयिनी नगरी में राजा प्रद्योतन की सेवा (नौकरी) करने गया। राजा प्रद्योतन ने उसे वही कूपपुण्ड्र नामक गाँव दिया। कुछ समय में आसपास के शत्रुओं के साथ बार-बार युद्ध होने से क्षत्रभट की देह के अङ्गोपाङ्ग ढीले पड़ गये। इसलिए वह वीरभट पुत्र को, राजा को सौंपकर आप घर आ गया। वीरभट के शान्तिभट नामक पुत्र पैदा हुआ। वह पुत्र धीरे-धीरे बड़ा होकर राजा की सेवा करने लगा। शान्तिभट स्वभाव का स्तब्ध, अभिमानी और युवावस्था से ही घमण्डी था। अतः राजा प्रद्योतन और राजपुत्रों ने मिलकर शान्तिभट नाम बदलकर मानभट रक्खा। हे पुरन्दरदत्त राजन्! यही मानभट एक बार राजा प्रद्योतन की सभा में गया। सब सभासद्
मान पर मानभट की कथा
द्वितीय प्रस्ताव