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द्वितीय प्रस्ताव
दाँतों की कान्ति से अन्धकार के समूह को दूर करते हुए मुनिराज कुवलयचन्द्रकुमार के संशय को दूर करने के बहाने उसे प्रतिबोध देने के लिए अमृत समान वाणी से बोले- "वत्स! संसार में जीवन, यौवन, धन, लावण्य और प्रिय पदार्थो का संयोग, ये सब कुशके अग्रभाग पर ठहरे हुए जल के बूंद के समान चञ्चल हैं। जो शत्रु बन जाते हैं। ऐसी हालत में कौन विवेकी इन सब में ममता करेगा? जीव अकेला ही सुखी होता है, अकेला ही दुःखी होता है, अकेला ही मरता है और अकेला ही मुक्त होता है। जीव कर्मो से ही राज्य पाता है और कर्मों से उसे गवाँ देता है। किन्तु कर्म के मर्म स्थान को नष्ट करने के लिए सिवाय विद्वान् के और कोई समर्थ नहीं है। प्राप्त की हुई लक्ष्मी क्षण भर में नष्ट हो जाती है जैसे आँधी से बादलों के समूह नष्ट हो जाते हैं। प्राणी नरक में ऐसे ऐसे असह्य कष्ट सहता है कि जिनके सुनने से ही शरीर में कँपकँपी छूटती है। तिर्यञ्च गति में जीव अपने कर्मों के कारण ही चाबुक, बन्धन और अङ्कुश वगैरह की व्यथा निरन्तर सहा करते हैं। मनुष्य गति में प्राणियों को इष्टवियोग, व्याधि, सन्ताप और राजा का कोप आदि नवीननवीन वेदनाएँ भोगनी पड़ती हैं। देवगति में भी जीवों को माया, ईर्ष्या, भय, उद्वेग और विषाद से व्याकुल-चित्त होने से अभिमान से ही सुख होता है। इस प्रकार चारों गतियों में भ्रमण करते-करते इस जीव ने किसी भी भव में ऐसा धर्म नहीं पाया कि जो कर्मों को मथ डाले। मोक्ष का सुख आत्मा के ही अधीन है, तो भी जो मनुष्य विषयों में मस्त रहता है वह कल्पवृक्ष को पाकर उससे एक कौड़ी की याचना करता है। यदि संसार रूपी मरुस्थल के अरण्य को पार करने की इच्छा हो तो मन रूपी मसक में रहे हुए सम्यक्त्व रूपी सलिलद्वितीय प्रस्ताव