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कुवलयमाला-कथा
[29] जल को निरन्तर धारण किये रहो। कुमारकुवलयचन्द्र! इस असार संसार में क्रोध, मान, माया, लोभ और मोह से जिनके चित्त मुग्ध हो गये हैं, उन प्राणियों ने जो फल भुगते हैं, उनके वर्णन के साथ-साथ, एकाग्र चित्त होकर अश्वहरण तक का सारा हाल सुनो।
इस जम्बूद्वीप में वत्स नाम का देश है उसमें पूर्ण विस्तार वाला और यज्ञ- स्थानों की अग्नि के उत्पन्न होने वाले धुंए से विशाल आकाशतल अत्यन्त श्यामवर्ण का हो गया था। वह देश, अन्य समस्त देशों की लक्ष्मी के वक्षःस्थल को अलंकृत करने के लिए चमकीले हार के समान था और ऐसा शोभित होता था, मानो तमाम देशों से आनेवाली अनेक वस्तुओं की संकेत भूमि अड्डा हो। ऐसा जान पड़ता है कि उस देश में, वायु के हिलाये हुए पुण्ड्र जाति के गन्नों के पत्तों के 'खड़खड़' शब्द से डर कर ही मृगों के झुण्ड जंगल में भाग गये थे। उस देश की स्त्रियों की दृष्टि घूरने वाली और चपल थी उसे देखकर, कानों तक विस्तृत अपनी स्त्रियों के नेत्रों के स्मरण हो जाने से वटोही बहुत देर तक स्तम्भित (सन्न) रह जाते थे, मानों वे चित्र हों या पत्थर के खंभें हों, उस देश में कौशाम्बी नामकी नगरी थी। वह मानो देवनगरी हो, इस प्रकार सवृषों को उसमें आश्रय था। अलकापुरी की भाँति पुण्यजनों से युक्त थी और लंकापुरी की नाई कल्याणमयी थी। वह नगरी ऊँचे-ऊँचे शिखर वाले देवालयों से शोभित थी। उसके चारों तरफ गहरे जल वाली खाई से अलंकृत किया हुआ प्राकार-कोट था। इससे वह ऐसी मालूम होती थी, मानो लवणसमुद्र की वज्र-वेदिका से युक्त जम्बूद्वीप की लक्ष्मी हो। एक ही जगह तीन लोक की विकास समान लक्ष्मी का सेवन करने वाली उस कौशाम्बी नगरी का कहाँ तक वर्णन किया जाय? सच तो यह है कि उसके वर्णन करने में बृहस्पति भी असमर्थ हैं।
जैसे प्यारी स्त्री को प्रिय पति भोगता है, उसी प्रकार इस नगरी को इन्द्र जैसा पराक्रमी पुरन्दरदत्त नामक राजा भोगता था। वह राजा कीर्ति रूपी गङ्गा नदी के लिए हिमालय सदृश था, गुण रूपी पक्षियों के विश्राम के लिए वृक्ष समान था और कल्पवृक्ष की तरह सब को मनचाही चीजें देने वाला था। उस राजा के, आकाश में फैलने वाले स्वच्छ यश से राजहंस तिरस्कृत हो गये थे और श्रीकृष्ण के वर्ण के समान श्यामवर्ण वाले सूर्य के घोड़े भी सफेद हो गये
द्वितीय प्रस्ताव