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कुवलयमाला-कथा शोभा पा रहे थे। उनके एक ओर कोई दिव्य पुरुष और दूसरी ओर एक सिंह बैठा हुआ था।
कुमार ने यह सब देखकर सोचा- 'समस्त तीन लोकों के द्वारा जिनके चरण-कमल नमस्कार करने योग्य हैं ऐसे इन मुनि को नमस्कार करके अपने अश्व-हरण का कारण पूछना चाहिए कि मेरा हरण किस कारण से किया गया है? वह अश्व (घोड़ा) कौन था, ऐसा सोचकर वह एक बड़ी सी शिला पर बैठे हुए महर्षि के समीप गया। मुनि ने उसे देख कर कहा- "चन्द्रवंश के अलङ्कार कुवलयचन्दकुमार! तुम अच्छे आये। वत्स! आओ।"
अपना नाम और गोत्र सुनकर कुवलयचन्द्र के मन में बड़ा आश्चर्य हुआ। उसने बड़े विनय से मुनिराज के चरणकमलों में वन्दना की। सब प्रकार के भव-भय हरने वाले और मोक्ष सुख देने वाले उन पूज्य मुनि ने कुमार को 'धर्मलाभ' रूप आशीर्वाद दिया। इसके बाद पहले से बैठे हुए उस दिव्य पुरुष ने भी अपना कल्पवृक्ष के नवीन अंकुर के समान कोमल और माणिक्य के कडारूप आभूषण से भूषित हाथ लम्बा किया। राजकुमार ने उस हाथ को अपने दोनों हाथों में लेकर कुछ मस्तक झुकाकर नमन किया। उस समय बहुत से शिथिल केश वाले सिंह ने भी अपनी लम्बी पूँछ कुछ टेढ़ी करके, शान्त करके तथा दोनों नेत्रों को कुछ-कुछ बन्द करके राजकुमार का सम्मान किया। कुमार ने हर्ष के आवेश से प्रफुल्लित और आन्तरिक स्नेह से युक्त होकर श्वेतदृष्टि से उसके सामने देखा। कुमार मुनि के समीप बैठ गया।
मुनि बोले-"कुमार! तुमने अपने मन में यह विचार किया है कि 'किसने मेरा हरण किया? हरण करने का क्या कारण है? वह अश्व कौन था? इस सम्बन्ध में इस मुनि से पूछू। तो कुमार! यह वृत्तान्त मैं विस्तार से बतलाता हूँ। तुम सुनो।"
॥ इति प्रथमः प्रस्तावः॥
प्रथम प्रस्ताव