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कुवलयमाला-कथा
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वह विद्यालय (गुरुकुल) में विद्याभ्यास के लिए भेजा गया - जहाँ कि चन्द्रमा और सूर्य की किरणें छू न सकें, परिजन देख न सकें और माता - पिता से भी मिलाप न हो सके । कुमार वहाँ बारह वर्ष पर्यन्त मुनि की भाँति जितेन्द्रिय हो कर रहा । उसे स्वादिष्ट भोजन की परवाह न थी । दो कपड़े थे, उनमें आसक्ति न थी। उसकी तीक्ष्ण बुद्धि सुर, असुर और बृहस्पति की बुद्धि का तिरस्कार करती थी और कुशाग्र थी । इसलिए उसने चन्द्रमा की कला के समान निर्मल समस्त कलाओं का आचार्य से ऐसे पान कर लिया जैसे अगस्त्य ऋषि ने समुद्र का सारा जल पी लिया था । कुमार ने समस्त कलाएँ इतनी फुर्ती से ग्रहण कीं मानो आचार्य के पास रक्खी हुई धरोहर ही उठा ली हो । एक दिन प्रकाशमान पराक्रम का आधार सुन्दर आकार वाला कुमार स्नान भोजन आदि क्रियाओं से निपटकर, शरीर पर चन्दन का लेप कर, दो वस्त्रों को धारण करके तथा गले में सुगन्धित फूलों की माला पहन कर अपने सरीखा वेष धारण करने वाले उपाध्याय के पीछे-पीछे चलता हुआ पिता के चरण कमलों में प्रणाम करने आया। उस समय सब की आँखों को आनन्द देने वाले चेहरे के अपने पुत्र को देखकर राजा का मन इस प्रकार प्रफुल्लित हो गया जैसे सूर्य को देख कर कमलों का वन या पूनम के चन्द्र को देखकर समुद्र प्रफुल्लित हो जाता है । कुमार ने विनय पूर्वक पिता को प्रणाम किया। राजा ने उसे अपनी गोद में बिठलाकर पूछा- “उपाध्याय महाराज ! इसने आप पूज्य से समस्त कलाएँ ग्रहण कर लीं ?" उपाध्याय बोले - "देव ! कुमार ने मुझ से कोई कला नहीं ग्रहण की परन्तु जैसे बहुत काल से उत्कण्ठित चित्त वाली स्त्रियाँ पति को स्वीकार कर लेती हैं, वर्षाऋतु में नदियाँ भरपूर जल वाली होकर समुद्र को ग्रहण कर लेती हैं, उसी प्रकार सब कलाओं ने इस बुद्धि के निधान कुमार को स्वीकार कर लिया है।" यह बात सुनकर राजा ने उपाध्याय का विधिपूर्वक सत्कार करके कुमार से कहा- " बेटा ! तेरे अत्यन्त दुःसह्य वियोग रूपी अग्नि से उत्पन्न होने वाले चिन्ता रूपी धुंए से प्रियङ्गुश्यामा श्याम होकर यथार्थ नाम वाली हो गई है। सो उसके पास जाकर उसे प्रणाम करो। " महाराज की आज्ञा पाकर 'जैसी देव की आज्ञा' कह कर कुमार राजा की गोद से उठा और पुत्र के दर्शन से जिसकी आँखों में आनन्द के आँसू भर आये हैं ऐसी, अपनी माता के पास आकर उसे प्रणाम किया। रानी ने समस्त माङ्गलिक क्रियाएँ
प्रथम प्रस्ताव