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कुवलयमाला-कथा
ज्योतिषी
कुवलयमाला आपकी पुत्रवधू (पतोहू) होगी।
देवगुरुमंत्री - स्वामिन्! यह बात ठीक है, क्योंकि कुवलयमाला चन्द्रमा से जुड़ी नहीं होती । अतएव यह बात बिलकुल संभव है । फिर वह माला चन्द्रमा को घेरे हुए दिखाई दी है, इससे यह प्रगट है कि वह राजकुमार की पूर्व भव की प्रिया और सर्व जनता के चित्त को हरने वाली होगी ।
राजा- बिलकुल ठीक है ।
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इसके पश्चात् थोड़ी देर तक विद्वद्गोष्ठी करके राजा अपने अन्य कार्यों में लग गया। सभा विसर्जित हुई ।
उसी दिन से हर्ष के साथ गर्भ को धारण करती हुई प्रियङ्गुश्यामा आकाश की भाँति शोभत होने लगी । शरीर के सब अवयव सुन्दर होने लगे । कुटुम्ब आदि के लोग आदर करने लगे। वह सज्जनों के अनुकूल हो गई, प्राणिमात्र पर दया करने लगी और गर्भ की समस्त इच्छायें (साधें) पूर्ण करके स्वर्ग के समान शोभा पाने लगी ।
इस प्रकार कितने ही दिन बीत गये । पश्चात् तिथि करण और योग से सुन्दर ऊर्ध्वमुखी होरा वाले शुभ लग्न में जिस समय सब ग्रह उच्च स्थान में मौजूद थे, उसी समय चतुर दाइयों से रक्षित महारानी ने निर्दोष पुत्र को जन्म दिया, जैसे ताम्रपर्णी नाम की नदी मोती को, रोहण पर्वत रत्न को, वैडूर्य पृथ्वी वैडूर्य मणि को, पूर्व दिशा सूर्य को, मलयपर्वत चन्दन को, समुद्र की वेला (तरङ्ग ) चन्द्रमा को और राजहंसी राजहंस को जन्म देती है । वह बालक ऐसा कन्तिमान् था कि दीपक की प्रभा को लज्जित कर देता है । उसका मुख खिला हुआ था और आँखें कमल के पत्ते के समान मालूम होती थीं ।
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रानी को तुरंत हुर्ष हुआ । नेत्र खिल गये । दासियाँ सोचने लगीं 'मैं पहले पहुँचू, मैं पहले पहुँचू ।' इस प्रकार मन ही मन कहती हुई वे राजा दृढधर्मा के पास गयीं। वे बोलीं- "देव ! पुत्ररत्न के उपलक्ष्य में हम आपको बधाई देती हैं । " राजा उनकी बात सुनकर बहुत ही प्रसन्न हुआ । खुशी के मारे उसने उन्हें इतना दान दिया कि उनकी दरिद्रता ही दरिद्र हो गई । राजा को पुत्र - जन्म का उस समय इतना हर्ष हुआ जितना किसी को धन का खजाना मिलने से होता है। इसके पश्चात् राजा ने पुत्र जन्म का असाधारण उत्सव मनाया। जिनेन्द्रदेव
प्रथम प्रस्ताव