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कुवलयमाला-कथा
[19] (चन्द्रमा) का उदय नहीं होगा', ऐसा विचार कर अस्त होने के बहाने से समुद्र ने सूर्य को निगल लिया। प्राणनाथ के सिवाय दूसरों को देखने से क्या लाभ? ऐसा सोचकर कमलिनी सिकुड़ गई मानो आँखें मीच ली हों। भयानक अन्धकार फैल गया। रंगों की शोभा का सत्तानाश हो गया। वह न खुद को देख सकता था, न दूसरों को।
शयनगृह में शय्या पड़ी थी। उसके ऊपर सफेद वस्त्र बिछा हुआ था। वह ऐसा जान पड़ता था जैसे गङ्गा का फेन हो। शय्या बड़ी कोमल और उज्ज्वल थी। प्रियङ्गश्यामा अपने इष्टदेव और गुरु का स्मरण करके उसी पर सो गई। निद्रा से नेत्र मुंद गये थे, पर उस समय भी वे बहुत सुन्दर मालूम होते थे। निदान रात्रि के पिछले भाग में उसने एक स्वप्न देखा, उसने चाँदनी के प्रवाह से दिशाओं के चक्र को पूर्ण कर देने वाला, सुगन्ध के लोभी भौंरों के समूह से घिरी हुई कुवलयमाला से वेष्टित और कुमुदों को मोद देने वाला चन्द्रमा देखा। उसी समय मङ्गल बाजों के बजने से रानी उठ बैठी। मन चाहे स्वप्न के देखने के आनन्द से वह आनन्दित हो गई। रोमाञ्च से शरीर ऐसा लगने लगा जैसे बख्तर पहन लिया हो। वह उसी समय राजा के पास गयी और स्वप्र का सारा हाल कह सुनाया। सुनकर राजा अमृत के समुद्र में गोते लगाता हुआ बड़े हर्ष से बोला-"प्रिये! राज्यलक्ष्मी ने पुत्र का जो वरदान दिया था वह अब सफल होगा।" 'देवताओं के अनुग्रह, राज्यलक्ष्मी के प्रभाव और गुरुजनों के शुभाशिषों से मनोरथ पूर्ण हो' यह कहते-कहते रानी को जो आनन्द हुआ, उसका अनुमान कवि भी नहीं कर सकते।
प्रात:काल की क्रियाओं से छुट्टी पाकर मन्त्रियों के साथ-साथ राजा सभाभवन में आये। नगर के सब ज्योतिषियों को बुलाया और स्वप्न का फल पूछा।
ज्योतिषी - महाराज! महान पुरुषों की मातायें स्वप्र में चन्द्रमा सर्य, बैल. सिंह और हाथी आदि देखती हैं। इसलिए कला सहित चन्द्रमा के देखने से यह सूचित होता है कि किसी प्रधान पुरुष का जन्म होगा।
राजा- राज्यलक्ष्मी के वरदान से यह तो विदित हो चुका है कि देवी के पुत्र होगा। किन्तु कुवलयमाला (कमल की माला) से घिरा हुआ चन्द्रमा रानी ने देखा है उसका फल हम पूछना चाहते हैं।
प्रथम प्रस्ताव