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कुवलयमाला-कथा
[11] हाथ फेरकर उसका आदर किया। सेनापति ने रानी को भी प्रणाम किया और मन्त्रियों के पास योग्य आसन पर बैठ गया। अपनी स्नेह भरी और उज्ज्वल पलकों वाली आँखों से हृदय में रहे हुए हर्ष की बूंदें निकालते हुए राजा ने पूछा-"सुषेण! आनन्द में तो हो?"
सुषेण - आपके चरण युगल के दर्शन से आज भी मैं सकुशल हूँ। राजा - मालवराज के साथ क्या कैसा हुआ?
सुषेण - आपकी आज्ञा से उस दिन चतुरङ्ग सेना वाले मालवराज के साथ अपनी लड़ाई हुई। चारों ओर फैली हुई मेरी सेना ने आपके प्रताप से शत्रु की सेना को छिन्न भिन्न कर दिया और उसके पास जो कुछ था, सभी लूट लिया। शत्रु की सेना में पाँच वर्ष का राजकुमार बालक ही है परन्तु वह बालक सरीखा न था। वह अपनी निज की शक्ति से युद्ध करता था, उसे भी हमने पकड़ लिया है। वह कुमार अभी दर्वाजे पर खड़ा है।
राजा ने यह बात सुनकर राजकुमार को अन्दर लाने की आज्ञा दी। मालवकुमार महेन्द्र दीनता रहित दृष्टि से देखता हुआ सभा में आया। वह ऐसा मालूम होता था कि सब गुणों वाला गन्धहस्ती हो। वह चमकते हुए सौभाग्य से सुन्दर मालूम होता था। उसके अवयव पवित्र शोभा से लावण्ययुक्त थे और शरीर चम्पक वृक्ष के फूल की तरह उज्ज्वल और कोमल था। सचमुच कुमार अनेक गुणों का मन्दिर ही होने वाला था। राजा ने उसे उछाह के साथ प्रेम पूर्वक दोनों भुजाओं में पकड कर अपनी गोद में बैठा लिया। राजा की ऐसी दशा हुई जैसे समुद्र चन्द्रमा को देखकर उछलने लगता है। राजा ने उसे छाती से लगाकर कहा- "अहा! कुमार का पिता वज्र की तरह कठोर हृदय का जान पड़ता है, जो कुमार से वियोग हो जाने पर भी अब तक जीवित है।" रानी भी देवकुमार सरीखे कुमार को देखकर पुत्र की तरह प्रेम धारण करती हुई बोली- “जिसकी कुंख में रोहणाचल सरीखा असाधारण गुणों वाला पुत्र पैदा हुआ है, वह माता धन्य है। लेकिन वह स्त्री बड़ी निर्दय मालूम होती है जो ऐसे पुत्र के विरह होने पर भी प्राण धारण किये हुए है।" यह सुनकर मन्त्री बोले- "जहाँ भाग्य का फल ही ऐसा हो वहाँ राजा क्या करे? यह आपके पुण्य का फल है, कहा भी है
प्रथम प्रस्ताव