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कुवलयमाला-कथा भवेयुर्न भवेयुर्वा, यस्य कस्यापि भूस्पृशः। अतीव स्युः पुनः पुण्य,-वशतः सर्वतः श्रियः।।
अर्थात् किसी के यहाँ लक्ष्मी होती है, किसी के नहीं भी होती और किसी के अत्यन्त पुण्य के उदय से सब प्रकार की लक्ष्मी होती है। ___हृदय के दुःख रूपी अग्नि की ज्वाला से कुमार का चित्त झुलस गया था। वह उसी समय आँसू बहाकर रोने लगा। वह ऐसा जान पड़ने लगा कि जल की तरङ्ग से सौ पत्ते वाला कमल बह रहा हो या उदयाचल पर्वत का आश्रय लेने वाले (उदित होते समय के) सूर्यमण्डल की किरणों से तिरस्कृत धूसर वर्ण वाले चन्द्रमा का बिम्ब हो या जलते हुए दीपक की लौ से संतापित मालती का फल हो। बालक के मुँह की ओर देखकर राजा बोला- "इसके मन में कोई बहुत बड़ा दुःख है।" ऐसा कहते ही उसकी दोनों आँखें आँसुओं से भर आयीं। स्वभाव से दयावती रानी की आँखों से उसके कुच कुम्भों पर गिरने वाली आँसुओं की बूंदों से वह ऐसी मालूम होने लगी कि हार पहन लिया है। राजा ने अपने कपड़े के छोर से बालक का मुख कमल पोंछ दिया। नौकर ठण्डा पानी लाये और रानी तथा मन्त्रियों ने उसका मुँह धो दिया। राजा बोला "सुरगुरु वगैरह मन्त्रियों! बताओ, मेरी गोद में बैठा-बैठा यह बालक क्यों रोने लगा?"
एक मन्त्री - आखिर बालक है। माता पिता के वियोग से मन में दु:ख हुआ होगा और इसीसे रोने लगा होगा। इसके सिवाय और क्या कारण हो सकता है?
दूसरा मन्त्री - महाराज, आपको देख कर इसे अपने माता-पिता का स्मरण हो आया और इसी कारण रो पड़ा।
तीसरा मन्त्री – स्वामिन् ! इसे यह नहीं मालूम है कि मेरे माता-पिता कैसी दशा में हैं? इसी से यह रोने लगा।
राजा - इस विषय में हम लोग अनुमान बाँधे। इसी बालक से पूछना चाहिए। यह कह कर उसने पूछा- "बेटा महेन्द्रकुमार! बताओ तुम क्यों रोये?"
राजा की बात सुन कुमार ने हिचकियाँ लेते-लेते मीठे और गम्भीर शब्दों में कहा-“देखिये, भाग्य का कैसा अनोखा खेल है। इन्द्र के समान पराक्रम
प्रथम प्रस्ताव