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कुवलयमाला-कथा होती थी, वह सब कलाओं में निपुण था, किन्तु मीठे और खुशामदी वचन बोलने में निपुण न था। तलवार की तेज धार से विदारण किये हुए शत्रुओं के हाथियों के गण्डस्थल से गिरे हुए मोतियों से समस्त भूतल को भूषित करने वाले, बेरोकटोक सब जगह फैले हुए असीम प्रताप से तमाम शत्रुओं की कीर्ति वाले सरोवरों को सोखने वाले शरद् ऋतु के चन्द्रमा की चाँदनी की भाँति निर्मल गुणों वाले, असीम सौभाग्य रूपी लक्ष्मी ने अपनी इच्छा से जिसके शरीर की विभूति को कटाक्ष का निशाना बनाया था ऐसे, नमे हुए अनेक राजाओं के मस्तकों पर रखे हुए अनेक मणिमय मुकुटों के अग्रभाग में निकली हुई देदीप्यमान कान्ति के समूह से जिसके चरण कमल चित्र विचित्र हो गये थे ऐसे और अपने प्रताप से आक्रमण किये गये दिशा-मण्डल के छोर तक जिसकी आज्ञा ने विश्राम पाया था। ऐसे राजा दृढधर्मा की स्वयंवर में परणी हुई प्रियङ्गुश्यामा नाम की प्रिया थी। वह विष्णु के लिए लक्ष्मी की तरह तथा चन्द्रमा की चांदनी की भाँति रनवास भर की रानियों में मुख्य थी और समस्त गुणों से मनोहर थी। वह अपनी बेजोड़ रूप से देवियों को लज्जित करती, दूसरी जगह न पाने जाने वाले पवित्र सौन्दर्य से बढ़ी हुई निर्मल चांदनी की भाँति देदीप्यमान और सदा सद्ध्यान और सद्धर्म में सावधान रहने वाली थी। जैसे इन्द्र इन्द्राणी के साथ विषयसुख भोगता है उसी प्रकार दृढधर्मा ने भी प्रियङ्गुश्यामा के साथ कुछ दिन बिताये।
किसी समय दृढधर्मा अपने थोड़े से मन्त्रियों के बीच अपनी अन्तरङ्ग सभा में बैठा था। प्रियङ्गश्यामा भी उसके बाईं ओर आनन्द के साथ बैठी थी। उस समय हाथ में छड़ी लिये हुए एक प्रतिहारी (सेविका) आई और राजा को बड़े भक्ति भाव से प्रणाम करके बोली-“देव! उस दिन आपकी आज्ञा से शबर सेनापति का पुत्र सुषेण मालवा के राजा को जीतने के लिए गया था। इस समय वह दर्वाजे पर खड़ा है और आपके चरण कमल के दर्शन करना चाहता है।"
राजा - आने दो। प्रतिहारी - महाराज की आज्ञा प्रमाण है।
इतना कहकर वह उसे भीतर ले आई। सुषेण ने राजा को देखा और कुछ पास आकर उन्हें नमस्कार किया। राजा ने 'आसन' कहते हुए सिर पर
प्रथम प्रस्ताव