________________
कुवलयमाला-कथा
[213] के स्वरूप की व्याख्या की। स्कन्द, रुद्र, चतुर्मुख, व्यन्तरगणाधिप आदि सराग देव आराधित किये हुए लोगों को जनाधिपों की भाँति राज्यश्री प्रदान करते हैं और रुष्ट होते हुए वे उसे अपहृत भी कर लेते हैं। फिर कर्मरूपी इन्धन जिनका जल गया है ऐसे तीर्थङ्कर सिद्ध केवली रज, मद और मद से रहित ये नीराग स्वर्ग और अपवर्ग की श्री देते हैं।
इस बीच में श्यामल वक्षःस्थल पर शोभित ब्रह्मसूत्र वाले ब्राह्मणपुत्र ने तीन बार प्रदक्षिणा कर भगवान् को प्रणाम कर पूछा - "भगवन्! कौन यह पक्षी मनुष्य वाणी में बोल रहा है? जो उसने कहा - वह युक्त है अथवा अयुक्त?" भगवान् बोले - "भद्र! वह पक्षी वन में दिव्य है, उसने जो कहा वह युक्त ही है।" यह कह कर वह समवसरण से निकल गया। तब ज्ञानवाले भी श्रीगौतम ने पूछा -"क्या यह सुखसंभव दायक है? इसने क्या पूछा?" इस प्रकार पूछे गये भगवान् ने कहा
ज्यादा दूर नहीं, सरलपुर ब्राह्मणों का स्थान है। वहाँ महेभ्य सूत्रकण्ठ है। उसका पुत्र स्वयम्भुदेव है। वह यज्ञदेव कालक्रम से परलोक सिधार गया। उस ब्राह्मणपति के अस्त हो जाने पर सारा ही धन विलीन हो गया। पूर्वकार्यों के फलस्वरूप इसके पास एक दिन का भोजन नहीं रहा। इस प्रकार धनक्षीण हो जाने पर लोकयात्रा नहीं होती, अतिथि सत्कार समाप्त हो गए। बन्धुकर्म शिथिल हो गए और दान गलहस्ती बन गए।
जब तक घर में लक्ष्मी रहती है तब तक ही व्यक्ति गुरु और बान्धवों की महिमा का पात्र रहता है।। १०४।।
दरिद्रता का अञ्जन लगाये हए लक्ष्मीवालों के सामने विद्यमान भी दृष्टि के अतिथि नहीं बनते।। १०५ ।।
मनुष्यों को लक्ष्मी के साथ अन्धापन और बहरापन हो जाता है इसीलिए वे दीन व्यक्ति को न देखते हैं और न उसका वचन सुनते हैं।। १०६ ।।
यह जानकर माता ने स्वयम्भुदेव को कहा
"हे वत्सलमानस वत्स! लक्ष्मी से ही यहाँ सदा शोभित होते हैं, उसके बिना तो तुम यहाँ जीते हुए भी मृत हो।। १०७।।
चतुर्थ प्रस्ताव