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कुवलयमाला-कथा वे पुण्यवान् तुम्हारे पिताजी अस्त हो गए, अतः कुटुम्ब का पोषण तुम्हारे ही अधीन है।" यह सुनकर स्वयम्भुदेव माता के चरणों में नमस्कार के साथ अञ्जलि बनाये हुए बोला- "माताजी! मन को खिन्न मत करो। मैं बहुत दिनों तक धन उपार्जित न किया हुआ घर में प्रवेश नहीं करूँगा।" यह कहकर घर से निकल कर ब्राह्मणपुत्र ग्राम, नगर और खेट से व्याप्त विपुल चम्पापुरी में सभी उपायों से धन को खोजता हुआ पहुँचा। वहाँ सूर्यास्त हो जाने पर स्वयम्भुदेव पुरी के भीतर प्रवेश न पाता हुआ एक जीर्ण उद्यान में प्रवेश कर 'किस रीति से रात निकालने का उपाय करूँ?' यह सोचते हुए ने तमालवृक्ष पर चढ़कर चिन्तन किया -'इस जन्म को धिक्कार है कि इतने दिनों तक बीच में सर्वत्र घूमते हुए मेरे हाथ में एक कोड़ी भी नहीं चढ़ी। घर में कैसे प्रवेश करूँ?' इस तरह चिन्तन करता रहा। तब उस पेड़ के नीचे दो जने आये एक ने कहा, "यह काम इस तालाब के नीचे करना चाहिए।" दूसरा बोला - "ऐसा हो" तब दोनों ने दशों दिशायें देख कर कहा-"यह स्थान सुन्दर है।" स्वयम्भुदेव उनकी बात सुनकर चुप रहा। तब उन दोनों ने खन्नि से जमीन खोद कर पहचान के साथ उसमें करण्ड रख कर कहा-"यहाँ जो भी कोई भूत, पिशाच या और कोई भी हो वह न्यास की गयी निधि की सदा रक्षा करे।। १०७।।"
यह कह कर वे दोनों यथास्थान चले गये। फिर उसने विचार किया
'जहाँ जिसके द्वारा जब जो और जितना जिससे प्राप्त करने योग्य होता है, वहाँ उसके द्वारा तब वह उतना उससे प्राप्त कर लिया जाता है।। १०८।।'
यह सोचकर पेड़ से उतर कर करण्डक में रक्खे हुए पाँच रत्न देखकर रोमाञ्चित हुए उसने विचार किया- 'इसको स्वीकार कर अब मैं अपने घर चलूँ' यह विचारकर और लेकर स्वयम्भुदेव मार्ग में जाता हुआ जंगल पहुंचा। इधर सूर्य भी अस्तङ्गत हो गया। उसने भी बहुत वृक्षों से व्याप्त किसी प्रदेश में अनल्प श्यामपत्रों से युक्त एक न्यग्रोधवृक्ष पर आरूढ होकर विचार किया - 'अरे विधि को जो देना था उसने दे दिया। तो अब घर गया हुआ मैं एक रत्न बेच कर समस्त कुटुम्ब बान्धवों का जो कृत्य है वह करूँगा।' तब सूची भेद्य अन्धकार होने पर वहाँ विविध वर्णों वाले बहुत से उन्नत शरीर वाले पक्षी
चतुर्थ प्रस्ताव