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कुवलयमाला-कथा
दिव्य ने कहा- “यदि तुम्हारे मन में कोई कौतुक है तो हे वत्स ! इस पाताल गृह से निकलकर पूछना ।। १०१ ।। "
उसने कहा - " किन्तु इस पाताल में वास करते हुए मुझको कितना समय बीत गया? यहाँ से मैं किस मार्ग से निकलूँ ? ।। १०२ ।। "
उसने भी कहा - " इस पाताल में तुम बारह वर्ष तक रहे हो। तुम इस विवरद्वार से शीघ्र निकल जाओ ।। १०३ | "
यह सुनकर कुमार उठ खड़ा हुआ । बन्दी तिरोहित हो गया । उन स्त्रियों ने नमन कर उस कुमार से कहा -" इसके अनन्तर देव क्या करना चाहते हैं?" कुमार ने कहा - " मैं दिव्य ज्ञानी भगवान् के पास किसी भी प्रकार जाकर पूछूंगा कि जो यह कहता है क्या यह सत्य है ? इसे किया जाय या नहीं?" तब उन्होंने कहा "जिस मार्ग को आप अङ्गीकार करेंगे, हम भी उसी का अनुसरण करेंगे।" इस प्रकार निश्चय कर कुमार ने तत्क्षण उठकर उसी विकटद्वार से निकल कर यहाँ हम स्थितों को मानकर आकर सन्देह पूछा और निकल कर गया हुआ वह यह चन्द्रगुप्त का पुत्र वैरिगुप्त है, पूर्वजन्म के सम्बन्धी से सङ्केतित देवकृत बन्दिप्रयोग से प्रतिबुद्ध हुआ है। तब गौतमगणधारी ने निवेदन किया
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'भगवन् ! वह कहाँ गया है?" भगवान् ने कहा – “उन कामिनीजनों को पाताल से निकालकर इस समय समवसरण के तृतीय तोरण के निकट यह आ पहुँचा है" भगवान् ने जब तक यह कहा तब तक कुमार ने स्त्रीवृन्द के साथ भगवान् की प्रदक्षिणा करके प्रणाम कर सुखासनस्थित होकर पूछा " भगवन् ! किस कारण कौन यह दिव्य स्तुति का व्रत लिया हुआ प्रतिबोध कराता है ? वह इस समय कहाँ है? " तब भगवन् ने पञ्चजनों की भवपरम्परा का विस्तार करना प्रारम्भ किया कि तब मणिरथकुमार, कामगजेन्द्र और वह तृतीय वैरिगुप्त स्वर्ग से च्युत होकर आप लोभदेव जीव यहाँ उत्पन्न हुए हो और प्रमत्त। तब मायादित्य और चण्डसोम ने अनेक प्रभातकालीन मङ्गलपाठ के मिष से प्रतिबोधित किया।" उसे सुनकर कुमार ने कहा -" भगवन् ! अब क्यों विलम्ब करते हैं? दीक्षा देने की कृपा कीजिये ।" तब भगवन् ने युवतिजनों के सहित वैरिगुप्त को प्रव्रजित कर दिया । तदनन्तर समस्त त्रैलोक्यरूपी सरोवर का अलङ्कार बना हुआ पुण्डरीक, पुण्डरीक की धवलमहिमा वाला श्रीवर्धमान हस्तिनापुर आकर समवसृत हो गया । भगवान् ने भी रागयुक्त और रागहीन देवता
चतुर्थ
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