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कुवलयमाला-कथा इधर अवसर मान कर तत्त्वानुगामी प्रचुर प्राणियों के वध से पाप की आशङ्का करने वाले काञ्चनरथ राजा ने पूछा-"मणिरथ कुमार भव्य(होनहार) है या अभव्य (अहोनहार)?" भगवान् ने कहा-"यह भव्य है और अन्तिम शरीर वाला है।" राजा ने निवेदन किया "कब फिर उस को जिनधर्म में ज्ञान होगा?" तीर्थकृत् ने कहा-“भद्र! तुम्हारा पुत्र प्रबुद्ध है और संवेगरङ्ग प्राप्त किया हुआ यहीं प्रस्थित हो गया है।" राजा बोला-"नाथ! किस वृत्तान्त से उसको वैराग्य हुआ?" जगन्नाथ ने कहा-"यहाँ एक योजन दूर भूभाग में कौशम्ब नामक वन है। वहाँ बहुत सारे हरिण, शूकर, शशकों के झुण्ड रहते हैं यह मान कर कुमार पापसमृद्धि के निमित्त आया। वहाँ भ्रमण करते हुए एक प्रदेश में हरिणों का दल देखकर धनुष् पर रख कर ज्योंही बाण चलाने को तैयार किया, त्योंही सारा ही हरिणसमुदाय काक नाश के समान नष्ट हो गया अर्थात् पलायित हो गया। परन्तु तब एकाकी एक हरिणी कुमार को बहुत समय तक देख कर दीर्घ निःश्वास लेकर निश्चल नेत्रों वाली बनी हुई हृदय में विश्वास प्राप्त की हुई निःशङ्क खड़ी रही। उसको उस अवस्था में स्थित देख कर कुमार से विचार किया-'अहो! महान् आश्चर्य है, इस हरिण समूह के पलायन कर जाने पर भी हरिणी मेरे मुख की
ओर देखती हुई वैसी ही खड़ी है' इस प्रकार विचार करते हुए उसके पास वह हरिणी आ गयी। तब वह अनेक जीवों के अन्तकर अर्धचन्द्र को देख कर भी स्नेह से पूर्ण हृदयवाली सी स्थित रही। फिर कुमार ने धनुष और बाण को तोड़ फैंका। 'जो निरपराध जन्तुओं को मारता है वह महापापी होता है' इस प्रकार विचार करते हुए प्राणिवर्ग के प्रति उत्पन्न करुणा और मैत्री के चित्त वाले उसने उस हरिणी को सहर्ष करतल से छू लिया।
जैसे-जैसे उसने उसके चित्राङ्ग को स्पष्ट रूप से छूआ वैसे वैसे वह हरिणी अश्रुपूर्ण लोचनों वाली हो गयी।। ७१ ।।
तब उसके देखने से कुमार के नेत्रों से विकसित उसका सर्वाङ्ग रोमाञ्चित हो गया। मन में महान् प्रमोद हुआ। ज्ञात हुआ जैसे कोई यह मेरी पूर्व में सम्बन्धिनी रही हो। ___ मैं ज्ञान को नेत्रों का ही मानता हूँ, अन्य किसी का नहीं। प्रिय को देखने पर नेत्र प्रमुदित होते हैं और अप्रिय को देखने पर संकुचित हो जाते हैं।। ७२ ।।
चतुर्थ प्रस्ताव