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कुवलयमाला-कथा
होकर भोगों को सर्प के फण के तुल्य जान कर गुरुजी के चरणों में प्रवज्या लेकर श्रमण धर्म को अपनाकर और मिथ्या दुष्कृत्यों को त्यागा हुआ होकर पृथ्वीसार वहीं विमान में अमृत - भोजी देव बन गया । इस प्रकार के पाँचों ही वहीं उत्तम विमान में सुकृत किये हुए उत्पन्न हुए । पूर्व में किये हुए संकेतों को जाने हुए वे परस्पर कहने लगे - ' संसारसागर को दुस्तर जान कर जैसे पूर्व में आचरण किया गया वैसे अब समस्त सुर असुर और नरों को सिद्धि का सुख देने वाले भगवान् से प्रणीत सम्यक्त्व में प्रयत्न करना चाहिए । यहाँ से भी च्युत हुए हमको पूर्ववत् ज्ञान में संलग्न परस्पर ही होना चाहिये ।' 'वैसा ही हो' इस प्रकार उनके द्वारा स्वीकार करने पर उनका कुछ काल व्यतीत हुआ ।
इसके पश्चात् जम्बूद्वीप में दक्षिण भारत में इसी अवसर्पिणी में युगादि जिनादि तीर्थनाथों के मोक्ष प्राप्त कर लेने पर अन्तिम जिन श्री महावीर के उत्पन्न होने पर पूर्व कुवलयचन्द्रदेव अपनी आयु परिपालित कर स्वर्गत होकर और वहाँ से च्युत होकर काकन्दीपुरी में प्रणतजनरूपी कुमुदों के लिए अमन्दानन्ददाता चन्द्रमा शत्रुजन रूपी गजों के लिए सिंह बने हुए सत्पथमार्गी काञ्चनरथ पृथ्वीपति का इन्दीवरलोचना नामक प्रणयिनी के कुक्षि से जन्मा मणिरथकुमार पुत्र हुआ और क्रम से यौवन को प्राप्त किया हुआ वह गुरुजनों से निषिद्ध किया गया भी साथियों से रोका गया भी, सज्जनों से निन्दित किया जाता हुआ भी, कर्मोदय से रात दिन पापसमृद्धि करता हुआ विरत नहीं हुआ। बाद में उसके अरण्य में प्रविष्ट हुए केवलज्ञानशाली जगत्त्रयपति त्रिभुवनतल को पवित्र किये काकन्दी में समवसृत हुए । तब चतुर्विध देवनिकायों ने भी समवसरण किया और वहाँ श्री महावीर ने स्वयं गौतमादि गणधरों के, सौधर्माधिपति के, सुरासुर-वृन्द के और सपरिजन काञ्चनरथ के सम्मुख सम्यक्त्वमूल दो प्रकार का धर्म बताने लगे
शङ्कादि दोषों से रहित स्थैर्यादि गुणों से विभूषित पञ्चलक्षणों से लक्षित सम्यक्त्व शिवशर्म (सुख) के लिए होता है ।। ६८ ।। आर्जव, मार्दव, शान्ति, सत्य, शौच, तप, यम, ब्रह्मकिञ्चनता और मुक्ति यतिधर्म कहा गया है ।। ६९ ।। अहिंसादि पञ्च अणुव्रत, गुणत्रय और चार शिक्षापद कुकर्महारी गृहिधर्म हैं ।। ७० ।।
चतुर्थ