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कुवलयमाला-कथा
[189] साधुओं ने कहा- "वे ही है" राजा बोला- "किस स्थान में ठहरे हैं?" उन दोनों ने कहा-"राजन्! संसाररूपी मरुस्थल के तरु वे गुरुजी प्रधान मनोरम उद्यान में स्थित हैं" यह कह कर वे दोनों मुनि विचरण करके अपने स्थान पर आए। राजा ने महल में जाकर कुवलयमाला और महेन्द्र के सम्मुख यह समग्र वृत्तान्त बता दिया, आज वही हमारा भाई दर्पफलिक आचार्यपद को प्राप्त किया हुआ हो गया है।' तब कुवलयचन्द्र ने कुवलयमाला और महेन्द्र के साथ मनोरम उद्यान में जाकर भगवान् दर्पफलिक को प्रणाम करके पूछा-"हे भगवन् ! तब आप चिन्तामणि पल्ली से निकलकर किन गुरुजी के पास प्रव्रजित हुए थे?" तब भगवान् ने कहा- "महाराज! तब वहाँ से निकलकर श्रीभृगुकच्छ में गये हुए मैंने एक मुनि को देखा। उस मुनि ने कहा-“हे दर्पफलिक राजपुत्र! मुझे पहिचानते हो?" मैंने कहा-"आपको मैं सम्यक् नहीं पहिचानता।" उन्होंने कहा-"तुमको वह चिन्तामणि पल्ली राज्य किसने दिया था?" मैंने कहा-"क्या आप वे हैं?" उन्होंने कहा-"ऐसा ही" मैंने कहा-"जैसे तब आपने राज्य दिया था वैसे अब संयमराज्य देने की कृपा कीजिए।" उन्होंने कहा-"यदि ऐसा है तो विलम्ब कैसे?" तब उन मुनि ने व्रत दे दिया। उनके साथ विहार करता हुआ मैं अयोध्या में आ गया और वहाँ तुम्हारे पिता दृढवर्मा उनके पास निकल गये। वे मेरे गुरु और तुम्हारे पिता उत्पन्न केवलज्ञान वाले सम्मेत शैल पर दोनों ही सिद्धिपद को प्राप्त हो गए। मैं तुमको प्रतिबोध कराने के लिए आ गया।" तब इस प्रकार पिशुनसंगति के तुल्य, लीलावती के लोचन प्रान्त के सदृश, महावात से आन्दोलित कदली दल के समान, शरत्कालीन मेघ समूह के तुल्य, इन्द्रधनुष के सदृश चञ्चलस्वभाववान् पदार्थसमूह को जानकर उनके चरणों के निकट कुवलयचन्द्र ने कुवलयमाला और महेन्द्र के साथ व्रतग्रहण कर लिया। कुवलयमाला भी आगमानुसार तप करके सौधर्म स्वर्ग में दो सागरों की उपमा की स्थिति से देवायुः हो गयी। कुवलयचन्द्र भी समाधि से विपन्न होकर वहीं विमान में उसके प्रमाण की आयुवाला हो गया। सिंह भी अनशन कर्म द्वारा वहीं देव बन गया है और भगवान् अवधिज्ञानी सागरदत्त मुनि मरकर उसी स्थान पर देव हो गये हैं।
तदनन्तर कुछ काल तक राज्यसुख का अनुभव कर मनोरथादित्य नामक पुत्र का राज्याभिषेक कर संसाररूपी महाराक्षस के भय से भ्रमित चित्रवाला
चतुर्थ प्रस्ताव